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प्राण- संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९२९
पथ्य, तथ्य और सत्य वाणी से पूरे होते हैं। सत्संग, प्रवचन, कथा, कीर्तन, पाठ, स्तोत्र से लेकर जप साधन तक परिष्कृत वाणी के माध्यम से ही सम्पन्न होते हैं।
आध्यात्मिक क्षेत्र में नवकार मंत्र आदि आत्म शक्ति वर्द्धक मंत्रों तथा वाग्गुप्ति एवं बाक्संवर की साधना से, उच्चस्तरीय विभूतियाँ, लब्धियाँ, उपलब्धियाँ और क्षमताएँ प्राप्त होती हैं। बशर्ते कि वाणी का परिष्करण या शोधन पहले सत्य, मौन, व्रत, वाक्तप आदि माध्यमों से किया गया हो।
ऐसी परिष्कृत वाणी के धारक मानव की वाणी में इतनी उत्कृष्ट क्षमता उत्पन्न हो जाती है कि वह जड़ जगत् को भी प्रभावित एवं कम्पित कर सकता है। इन्द्र के आसन को कम्पित कर देने की तथा चेतनजगत् में भी व्यापक भाव-प्रवाह उत्पन्न कर देने की क्षमता उसकी वाणी में हो जाती है। वह परिष्कृत और सुसंवृत वाणी के द्वारा स्वपर कल्याण कर सकता है।"
इस प्रकार वचनबल-प्राण-संवर द्वारा कर्मों के आनव और बन्ध से सर्वथा मुक्त हो सकता है।
कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में जैनागम सम्मत मनोबलप्राण, वचनबलप्राण, कायबलप्राण, इन्द्रियबलप्राण आदि के समर्थन में इन्द्र द्वारा कहा गया है - " जब मन विचार करता है, तब अन्य सभी प्राण उसके सहयोगी होकर विचारवान् हो जाते हैं। आँखें जब किसी वस्तु को देखने लगती हैं तब अन्य प्राण उनका अनुसरण - अनुगमन करते हैं। वाणी जब कुछ कहने लगती है, तब अन्य प्राण उसके सहयोगी हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियाँ तथा काया आदि जब अपने-अपने विषय में प्रवृत्त होते हैं, तो प्राण भी उसे पूर्ण सहयोग देते हैं।
कायबल - प्राणसंवर का रहस्य
कायबल प्राण- संवर का रहस्य भी समझ लेना आवश्यक है। काया कितनी ही स्थूल क्यों न हो, उसमें प्राणशक्ति न हो तो वह न तो कोई क्रिया या चेष्टा कर सकती है,
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वागेव विश्वा भुवनानि जज्ञे वाच उत्सवममृतं यच्च मर्त्यम् ॥" - शतपथ ब्राह्म स यो वाचं ब्रह्मेत्वपास्ते, यावद्वाचो गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति । -छान्दोग्य उपनिषद् ७/२/२
(ग) जिह्वा, ज्या भवति कल्पलं वाक् नाडीका दंतास्तपसाभिः दग्धाः । तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्द्बलैर्धनुभिर्देवा ।
(घ) "अश्मान् चिंदये विभिदुर्दुर्वचोभिः।”
(ङ) अखण्ड ज्योति सितम्बर १९७० से भावांश ग्रहण, पृ. २०
२. अथ खलु तस्मादेतमेवक्यमुपासीत । सो वै प्राणः सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राणः । * स यदा प्रतिबुध्यते यथाऽग्निर्विस्फुलिंगः । विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा, देवेभ्योलोकाः '''।”
- कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् अ. २
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- अथर्व. ५/१८/८
- ऋग्वेद ४/१५/६
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