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प्राण- संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९२१
स्पर्शेन्द्रिय का सर्वाधिक दुरुपयोग कामुकता - कामवृत्ति के वश होकर करता है, तब इसकी प्राणऊर्जा की अत्यधिक क्षति होती है। स्पर्शेन्द्रिय के साथ उपलब्ध प्राणऊर्जाशक्ति का निरोध करके तथा उसके विषयों के प्रति राग-द्वेष मोह न करके स्पर्शेन्द्रिय-प्राणशक्ति में अभिवृद्धि करनी चाहिए और उसका उपयोग आत्मगुणों का स्पर्श करने में अथवा महापुरुषों के, चरण स्पर्श में करना चाहिए था, उसके बदले स्पर्शेन्द्रिय का अधिकाधिक उपयोग और विषयों का उपभोग करके उसकी शक्ति का हाल ही करता है।
महान् आध्यात्मिक साधकों एवं महापुरुष एवं आमर्शोषधिलब्धि प्राप्त साधकों की स्पर्शशक्ति इतनी प्रबल हो जाती थी कि वे किसी भी दुःसाध्यरोग से पीड़ित व्यक्ति के शरीर को छू लेते तो उसका रोग छू-मंतर हो जाता है, किसी भी जिज्ञासु साधक के मस्तक पर हाथ रखकर उसमें विशिष्ट शक्तिपात कर सकता है। आमर्शोषधि-लब्धि से सम्पन्न व्यक्ति के चरणों की रज के स्पर्श से आधि, व्याधि और उपाधि मिट सकती है। उसके हाथ, पैर या शरीर के किसी अंग के स्पर्श से दुःसाध्य होगी, कुष्ट रोगी या अन्य चेपीरोग से आक्रान्त व्यक्ति का रोग शीघ्र ही मिट जाता है।
इसी प्रकार खेल्लोसहि लब्धि सम्पन्न का कफ (खंखार या लींट) जल्लोसहि लब्धि संपन्न के पसीना एवं विप्पोसहि लब्धि संपन्न व्यक्ति का मलमूत्र तथा सर्वोषधि लब्धि सम्पन्न व्यक्ति के समस्त अंगों का स्पर्श मात्र रुग्णव्यक्ति का रोग मिटाने में औषध रूप बन जाता है।
किसी भी व्यथा से पीड़ित व्यक्ति को आशीर्वाद दे देने से या मंत्र द्वारा हस्तस्पर्श या मोरपिच्छी के स्पर्श से झाड़ा दे देने से या मंत्रित जल का स्पर्श करा देने से उसकी समस्त व्याधि का निवारण तो साधारण स्पर्शेन्द्रियशक्ति सम्पन्न व्यक्ति कर सकता है। महात्माओं के चरण ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य आदि की साधना के कारण विशिष्ट प्राण ऊर्जा से सम्पन्न हो जाते हैं, इसलिए उनके चरण छूने से, उनका कर स्पर्श पाने से व्यक्ति की कुबुद्धि सद्बुद्धि में, दुराचरण सदाचरण में परिवर्तित हो जाता है।
रामकृष्ण परमहंस की स्पर्शेन्द्रिय इतनी प्राण ऊर्जा सम्पन्न थी कि उनकी सेवा में अहर्निश रहने वाला एक शिष्य उनके जीते-जी इतना अध्ययनशील नहीं था, न ही किसी विषय पर उपदेश दे सकता था, किन्तु उनके देहावसान के बाद वह उपनिषदों, गीता, भागवत आदि पर बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण करके धड़ल्ले से उपदेश देता था। यह श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा उसे दी गई स्पर्शदीक्षा का प्रभाव था।
इसी प्रकार पूर्वजीवन में नास्तिक नरेन्द्र को केवल एक बार उसके मस्तक पर हाथ रखकर उन्होंने परमात्मा के प्रति पूर्ण आस्तिक और संन्यास दीक्षा के लिये तत्पर बना दिया था।
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