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प्राण- संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९१९
वह प्राणसंवर की दृष्टि से उन वैक्रिय रूपों को जान देख नहीं सकता, अन्यथा रूप से ही जानता देखता है, जबकि भावितात्मा अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार यथार्थ रूप से उन्हें जान देख सकता है। अर्थात् वह प्राण संवर की अध्यात्म दृष्टि से जान-देख सकता
घ्राणेन्द्रिय बल प्राण का संवर : एक चिन्तन
घ्राणेन्द्रिय बल प्राण से नासिका में सूंघने की शक्ति-लब्धि प्राप्त होती हैं। प्राणेन्द्रिय की यह क्षमता चींटी, कीड़ों, दीमकों, मधुमक्खियों, कुत्तों आदि में विशेष रूप से पाई जाती है। किन्तु वे घ्राणेन्द्रिय में प्राप्त प्राण ऊर्जा से विशिष्ट क्षमता प्राप्त कर लेनें ? पर भी उसका संवर कतई नहीं कर पाते; जबकि मनुष्य प्राण शक्ति से प्राप्त गन्ध ग्रहण क्षमता का समभावपूर्वक संचरण कर सकता है। अर्थात् वह सुगन्ध दुर्गन्ध के प्रति होने वाले राग-द्वेष, आसक्ति और घृणा भाव न लाकर समभाव में स्थित रहकर घ्राणेन्द्रियबल प्राण- संवर कर सकता है। परन्तु यह वही कर सकता है, जो घ्राणेन्द्रिय की सुगन्ध दुर्गन्धग्रहण शक्ति को, उसका उपयोग राग-द्वेष मोह में लिप्त होने आम्रवों के लिए नहीं, अपितु अन्तर में ही सुगन्धि ग्रहण शक्ति पाकर आत्मध्यान में लीन होने के लिए करता है।
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घ्राणशक्ति कैसे निर्बल होती है, कैसे प्रबल ?
आज अधिकांश मानव पहले तो प्राणशक्ति की उपेक्षा करके उसे निर्बल बनाने में. hi हैं। घ्राणेन्द्रिय का अत्यधिक उपयोग सुगन्धित पदार्थों को सूंघकर आसक्त होने और दुर्गन्धित पदार्थों से घृणा करके उससे बचने में कर रहे हैं। वे आत्मध्यान में लीन होने और अंदर ही अंदर आत्मा की अन्तरंग सौरभ पाने अथवा बाह्य गन्ध पर समभाव रखने में प्राणशक्ति का उपयोग नहीं करते।
यों साधारण देवपूजक, अपने देव की द्रव्यपूजा में धूप, इत्र, पुष्प, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों का उपयोग करता है, परन्तु उसके पीछे समभाव की, आत्मध्यान की, आत्मलीनता की कोई संवरप्रधान दृष्टि नहीं है, केवल देव को सन्तुष्ट करने या रिझाने की दृष्टि होती है, जिससे अपना लौकिक या भौतिक स्वार्थ सिद्ध हो सके।
प्राणेन्द्रिय बल प्राण के संवर की सही पद्धति जानने से लाभ
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प्राणेन्द्रियबल प्राण के संवर की सही पद्धति जानकर उसकी साधना की जाए तो आम्रव निरोध का आध्यात्मिक लाभ मिल सकता है।
१. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती) सूत्र शतक ६, उ ७ सू: १-२ तथा शतकं ३, उ. ५, सू. १-२ अखण्ड ज्योति अक्टूबर १९७३ से यत्किंचिद् भाव ग्रहण, पृ. ३५-३६
२.
अखण्ड ज्योति अक्टूबर १९७३ से भावांश ग्रहण, पृ. ३७
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