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८९६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
प्राणशक्ति (वीर्य) से सम्पन्न जीतता है, प्राणशक्तिहीन हारता है
व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में भगवान् महावीर और गणधर गौतम स्वामी का इसी तथ्य से सम्बन्धित एक संवाद अंकित है।
गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-"भगवन् ! दो व्यक्ति एक सरीखे जवान हैं, उन दोनों की चमड़ी एक सरीखी है, वे समान वयस्क हैं, साथ ही दोनों के पास शस्त्र-अस्त्रादि साधन (उपकरण) तथा अन्य सहायक द्रव्य बराबर हैं, किन्तु उन दोनों में परस्पर युद्ध होता है तो उनमें से एक व्यक्ति हार जाता है, और दूसरा व्यक्ति जीत जाता है; ऐसा क्यों होता है ?"
भगवान् ने कहा-“गौतम ! जो सवीर्य (ऊर्जाशक्ति सम्पन्न प्राणशक्तिमान्) होता है, वह जीतता है और जो वीर्यहीन (प्राणशक्ति से हीन) होता है । वह हार जाता है।"
गौतम-“भगवन् ! वीर्यवान् जीत जाता है, और वीर्यहीन हार जाता है, इसका क्या कारण है?"
भगवान्-“गौतम ! जिसने वीर्य-विघातक कर्म नहीं बांधे हैं, न ही स्पर्श किये हैं, यावत् प्राप्त नहीं किये हैं, और न ही उसके वे कर्म अभी उदय में आए हैं, अपितु वे उपशान्त हैं, वह पुरुष जीत जाता है। इसके विपरीत जिसने वीर्य-विघातक कर्म बांधे हैं, स्पर्श किये हैं, यावत् उसके वे कर्म उदय में भी आ चुके हैं, उपशान्त नहीं हैं, वह व्यक्ति पराजित होता है।"
प्रस्तुत शास्त्रीय प्रश्नोत्तर में जय-पराजय का कारण प्राणशक्तिमत्ता और प्राणशक्तिहीनता, अर्थात्-सवीर्यता और निर्वीर्यता बताया है। वीर्य से यहाँ तात्पर्य हैप्रचण्ड ऊर्जा शक्ति-तैजस शक्ति, या प्राणशक्ति, जो उत्साह, उमंग, साहस, प्रचण्ड पराक्रम, मनोबल, संकल्पबल आदि के रूप में उभरती है। ऐसी प्रचण्ड प्राणशक्ति उसी में होती है जो वीर्य विघातक कर्म से रहित हो, वह शरीर से दुर्बल होते हुए भी प्रत्येक सत्कार्य में विजयी बनता है, जबकि जिसकी प्राणशक्ति वीर्य विघातक कर्म के कारण क्षीण हो गई हो, वह व्यक्ति भीमकाय एवं शरीर से परिपुष्ट होते हुए भी हार जाता है। प्रत्येक सत्कार्य में पस्तहिम्मत हो जाता है।' वास्तविक विजेता कौन? युद्धवीर या आत्मविकारवीर?
शौर्य और साहस शब्द का प्रयोग प्रायः युद्धक्षेत्र में दिखाई गई वीरता के अर्थ में होता है, पर यह परिभाषा बहुत ही संकुचित है। भगवान महावीर ने उसे विजयी न
१. देखें-व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र शतक १,उ. ८ सू.९ तथा उसका विवेचन (आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर) भा. १, पृ. १३९
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