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९०८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) शरीर-पर्याप्ति, (३) इन्द्रिय-पर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति; (५) भाषा-पर्याप्ति
और (६) मनः पर्याप्ति। ये सारे प्राणशक्ति (जैविक ऊर्जा) के स्रोत हैं, उद्गमस्थान हैं। इनमें प्राण-ऊर्जा उत्पन्न होती है।'
. दस प्रकार के विशिष्ट प्राण
प्राण का दूसरा प्रकार है-विशिष्ट प्राण। शरीर के विभिन्न कार्यों के आधार पर विभिन्न इन्द्रियों तथा मन, मस्तिष्क, हृदय आदि के संस्थान विशेष में यह प्राण खास नाम से पुकारा जाता है। समवायांगसूत्र के दसवें समवाय में विशिष्ट प्राण के दस प्रकार बताए गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण, (२) चक्षुरिन्द्रिय बंल प्राण; (३) घ्राणेन्द्रिय-बल प्राण, (४) रसनेन्द्रिय बल प्राण, (५). स्पर्शेन्द्रिय-बल प्राण, (६) मनोबल-प्राण, (७) वचन-बल-प्राण, (८) काय-बल-प्राण, (९) श्वासोच्छ्वास बल-प्राण
और (१०) आयुष्य बल-प्राणा दशविध प्राण : शरीर के विभिन्न भागों को शक्ति देने में सहायक ___ कानों से श्रवण करने में तथा कर्णेन्द्रिय की श्रवण-क्षमता बढ़ाने में जो सहयोगी बनता है, उसे श्रोत्रेन्द्रिय-बल-प्राण कहते हैं। आँखों में प्रेक्षणशक्ति प्रदान करने और दूरदर्शन की शक्ति की वृद्धि करने में जो सहायता करता है, उसे हम चक्षुरिन्द्रिय-बल-प्राण कहते हैं। नासिका से सूंघने तथा सुगन्ध-दुर्गन्ध को पहचानने एवं गन्धग्रहण शक्ति को बढ़ाने में जो प्राण सहायक बनता है, उसे घ्राणेन्द्रिय-बल प्राण कह सकते हैं। जिला से स्वाद चखने तथा खट्टे मीठे आदि रसों का ज्ञान कराने में तथा रसनेन्द्रिय की रस-परीक्षण शक्ति बढ़ाने में जो प्राण मदद करता है, उसे हम रसनेन्द्रिय-बल-प्राण कह सकने हैं। जो प्राण त्वचा से शीत-उष्ण, हलकें-भारी, स्निग्ध-. कोमल, कठोर (कर्कश) रूक्ष आदि विभिन्न स्पर्शों का अनुभव करने की शक्ति देता है तथा परीक्षण कराता है, एवं स्पर्श शक्ति में अभिवृद्धि करता है, वह स्पर्शेन्द्रिय-बल-प्राण कहलाता है।
इसी प्रकार जो प्राण मन को उत्साहित, सक्रिय, चिन्तन-मनन-सक्षम, विचारशील, निर्णय करने में सक्षम बनाता है, मन में ओज और तेज और बल भरता है, वह मनोबल-प्राण कहलाता है। जो प्राण वाणी को तेजस्विता, ओजस्विता, प्रभावशालिता, जोश, एवं सक्रियता से परिपूर्ण करता है, तथा बोलने की क्रिया में सहयोग करता है, वह वचन-बल प्राण है। जो प्राण शरीर, में स्फूर्ति, क्षमता,
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१. स्थानांग सूत्र स्था. ६ २. समवायांगसूत्र, समवाय १0 से
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