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प्राण-संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९०७
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भण्डार है। यह शक्ति असामान्य विद्युत्-स्तर की है। वह असामान्य इसलिए है कि भौतिक विद्युत् की तरह अंधी दौड़ नहीं लगाती, वरन् प्राणी की अपनी-अपनी पर्याप्ति और क्षमता के अनुरूप ही वह प्राप्त होती है, उसी के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ फैलाती
और समेट लेती है। प्राणों का मूल स्रोत : नाभि से नीचे तैजस शरीर
योग-साधना-विशारदों के मतानुसार प्राणों का मूल स्रोत-उद्गम-स्थान नाभि से नीचे तैजस शरीर है। तैजस शरीर (जैन सिद्धान्तानुसार एक सूक्ष्म शरीर) से ही प्राण (ऊर्जा, ओज, तेज या जैविक विद्युत्) उत्पन्न होती है। और वही प्राण सारे शरीर में व्याप्त है और संचार करता है। वही शक्ति, स्फूर्ति, उत्साह, आह्लाद, उमंग, आत्मविश्वास, साहस और जीवन देता है। इसे ही ओजस्, ब्रह्मवर्चस, आत्म बल का प्रकटीकरण अथवा जैविक विद्युत् कहते हैं। व्यक्तित्व की प्रखरता होने पर यही प्राण शक्ति बनकर निखस्ता उभरता है।
आँखों में चमक, चेहरे का आकर्षण, होठों पर नाचती प्रसन्नता, वाणी में जोश और प्रभावशालिता, इत्यादि सब व्यक्तित्व की प्रखरताएँ या विशेषताएँ केवल शारीरिक गठन पर निर्भर नहीं, अपितु प्राण शक्ति (विद्युत् ऊर्जा) पर निर्भर है। रंगरूप की दृष्टि से सुन्दर दीखने वाले व्यक्ति भी प्राण शक्ति से क्षीण-हीन होने पर उपेक्षणीय एवं हास्यास्पद बने रहते हैं। ऐसे प्राणशक्तिहीन लोगों का प्रथम दर्शन में जो आकर्षक प्रभाव उत्पन्न हुआ था, वह सम्पर्क में आने और व्यक्तित्व का परिचय मिलने के साथ ही समाप्त हो जाता है। .. .
. . . . इसके विपरीत काले एवं कुरूप व्यक्ति भी आन्तरिक प्राण ऊर्जा सम्पन्न होने से बहुत ही तेजस्वी एवं आकर्षक प्रतीत होते हैं। उनकी सूझबूझ, पैनी दृष्टि, आकर्षक वाणी, स्फूर्ति, साहसिकता एवं उमंग देखकर प्रत्येक व्यक्ति उनकी ओर आकृष्ट होता है, उनके सान्निध्य एवं सम्पर्क में प्रसन्नता अनुभव करता है। . इसी तरह हम देखते हैं, शरीर में कई शक्ति संस्थानों में पर्याप्त प्राण ऊर्जा का अभिवर्धन न होने से वे सुषुप्त, कुण्ठित या क्षतिग्रस्त पड़े रहते हैं। शरीर में पर्याप्त प्राण ऊर्जा के छह केन्द्र . ..
हमारे शरीर में पर्याप्त प्राण ऊर्जा के मुख्यतया ६ केन्द्र माने गए हैं। जिन्हें शास्त्रीय भाषा में पर्याप्ति कहा जाता है। वे पर्याप्तियाँ छह हैं-(१) आहार-पर्याप्ति, (२)
१. अखण्ड ज्योति मार्च १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. १६ २. वही, अप्रैल १९७६ से, भावांश ग्रहण, पृ. २१
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