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९०६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
'इलेक्ट्रोएन्सी फैलीग्राफ' की सहायता से यह जाना जा सकता है कि मस्तिष्कीय प्राण-विद्युत् का उत्पादन और खपत कहाँ कितनी हो रही है, और होनी चाहिए। यदि इसमें घट-बढ़ हो जाए तो मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगता है। अथवा यों भी कहा जा सकता है कि मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाने से इन प्राण-विद्युत् धाराओं में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है।
इस मस्तिष्कीय प्राण- विद्युत् की यह विशेषता है कि वह चेतना से सम्बद्ध है, जबकि भौतिक विद्युत् केवल शक्ति प्रवाह बनकर काम करती है। जिस मनुष्य के. मस्तिष्क के सचेतन शक्ति संस्थान कुण्ठित, शून्य, विक्षिप्त या विकृत हो जाते हैं, उसके प्रायः दूसरे अवयव भी मन्द तथा निष्क्रिय से, कुण्ठित तथा शून्य हो जाया करते हैं। परन्तु यदि मस्तिष्क प्राणऊर्जा (विद्युत्शक्ति) को प्राण- संवर की साधना-विशेष से जागृत, उद्बुद्ध और सशक्त किया जाए तो उसकी क्षमता जागृत हो सकती है ? इसी प्रकार यदि मस्तिष्कीय प्राणविद्युत् को प्राण- संवर की दिशा में नियोजित की जाए तो आत्मा की सूक्ष्म शक्तियाँ विकसित हो सकती हैं।
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मनःशास्त्री 'फ्लैमेरियन' का मत है कि “मानवीय विद्युत् की एक गहरी परत ही ओजस् (प्राण) है, इसकी समुचित मात्रा उपलब्ध हो तो मनुष्य सूक्ष्म अतीन्द्रिय शक्तियों से सम्पन्न हो सकता है।""
मानवीय विद्युत् (प्राणऊर्जा) पर विशेष शोध करने वाले 'विक्टर ई क्रोमर' का कथन है कि " ( इस प्राण-विद्युत् के समुचित उपयोग से) मनःशक्ति को घनीभूत करने की . कला में प्रवीणता प्राप्त करके उसे किसी दिशा विशेष में (लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में प्रयुक्त किया जा सकता है। यह इतना बड़ा शक्तिस्रोत है कि मानवीय व्यक्तित्व का कोई भी पक्ष उसके प्रयोग से प्रखर और उज्ज्वल बनाया जा सकता है। यदि यह प्रयोग अपनी सूक्ष्म (आन्तरिक) शक्तियों की खोज करने और विकसित करने (उभारने) में किया जा सके तो अतीन्द्रिय चेतना के क्षेत्र में आशातीत सफलता प्राप्त हो सकती है।"
इस प्रकार चेतनात्मक प्राणऊर्जा का सर्वोत्कृष्ट केन्द्र मस्तिष्क माना गया, और उसके पोषक रक्त-संस्थान को 'हृदय' कहा गया है। हृदय को पोषक सामग्री पेट से मिलती है। पेट को भरना मुँह का काम है। मुँह के लिए हाथ साधन जुटाते हैं। इस प्रकार शरीर के सारे ही अवयवों का चक्र प्राण शक्ति से संचालित होता है, उनकी कार्यक्षमता देखते ही बनती है।
एक कल कारखाने के संचालन से भी श्रेष्ठ संचालन व्यवस्था शरीर यंत्र में है, . जिसे अव्यक्त रूप से प्राण विद्युत् शक्ति करती है। वस्तुतः समग्र शरीर ही प्राण शक्ति का
अखण्ड ज्योति, अप्रैल १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. १९
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