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९०४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
प्राण का समग्र शरीरव्यापी केन्द्र : व्यान प्राण
arite प्राण का अर्थ किया गया है- जो समग्र शरीर में व्याप्त है, वह व्यान है। यह प्राण सारे शरीर में गति, स्पन्दन, क्रिया या हलचल करता है। शरीर के समस्त अंगोपांगों में यह शक्ति संचार का कार्य करता है। यह रक्तसंचार, श्वास प्रश्वास, ज्ञान तन्तु आदि माध्यमों से सारे शरीर पर नियन्त्रण रखता है। अन्तर्मन की स्वसंचालित समस्त शारीरिक गतिविधियाँ इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं। ?
प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है- 'इस काया नगरी में पाँच अग्नियों का निवास है। ये ही पंच प्राणों के रूप में प्रज्वलित रहती है । अपान गार्हपत्य अग्नि है। व्यान आहवनीय अग्नि है। जो उच्छ्वास निश्वास के रूप में श्वासों का आवागमन सम्यक् रूप से करता. है, वह समान प्राण है। पूर्वोक्त दोनों अग्नियों का समन्वय 'प्राण' नामक प्राण है। मन यजमान हैं, और इष्टफल उदान प्राण है। जैनदर्शनोक्त तैजस् शरीर से इनकी तुलना की जा सकती है।
पांच उपप्राणों का कार्यकलाप
पांच उपप्राणों का कार्यकलाप इस प्रकार है - (१) देवदत्त नामक उपप्राण मुखमण्डल के साथ जुड़े हुए नेत्र, कर्ण, जिह्वा, नासिका आदि का उत्तरदायित्व संभालने वाला प्रहरी है। (२) वृकल नामक उपप्राण कण्ठ का दायित्व संभालता है । (३) कूर्म नामक उपप्राण उदर क्षेत्र के समस्त अवयवों की देखभाल रखता है, उनमें सन्तुलन PE स्थापित करता है। (४) नाग नामक उप प्राण जननेन्द्रिय से सम्बन्धित प्रदेश का संतुलन संभालता है। कुण्डलिनी शक्ति, कामवासना, प्रजनन आदि पर इसी का नियंत्रण है। (५) धनंजय नामक उपप्राण का कार्यक्षेत्र जंघाओं से लेकर एड़ी तक है। गतिशीलता, स्फूर्ति, अग्रगमन का उत्साह इसी की समुन्नत स्थिति का परिणाम है।
१. (क) “अपनयति प्रकर्षेण मलमपनयति निस्सारयति, अपकर्षति च शक्तिं इति अपानः ।” (ख) रस समे न नयति न, सम्यक् प्रकारेण नयतीति समानः । समावजयात् प्रज्वलनम्
-योगदर्शन पाद ३ सूत्र ४०
(ग) उन्नयति यः उद् आनयति वा उदानः ।"
(घ) 'व्याप्नोति समस्त शरीरं यः स व्यानः। ""
(४) अखण्ड ज्योति मार्च १९७७ से भावांश ग्रहण पृ. ४४
२. प्राणाग्नेय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति । गर्हिपत्यो ह वा एषोऽपानी, व्यानोऽन्वाहार्य पचनो यद् गार्हपत्यात् 3. प्रणीयते, प्रणयमादाहवनीयः प्राणः ॥ ३ ॥ यदुच्छ्वास- निःश्वासावेतावावाहतो समं नयतीति समानः मनो-हवा यजमानः, इष्टफलमेवोदानः । ॥४ ॥ - प्रश्नोपनिषद् ४ / ३०४
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