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-प्राण-संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९११ डालते हैं, वे कर्तृत्व क्षमता से रहित, हीन बन जाते हैं। अतः प्राणों की गति को नष्ट करने के बदले मन्द कर देने की, प्राणों को निःस्पन्द, निश्चल करने की कला का परिज्ञान और अभ्यास ही प्राणों की कार्यक्षमता में वृद्धि करना है।' ..... मनुष्य के पास ध्वंसात्मक शक्ति भी है, सृजनात्मक शक्ति भी। यदि प्राणों की शक्ति की अभिवृद्धि करके उसे युद्धों, संघर्षों, हिंसात्मक कार्यों तथा विनाशलीला में लगाया जाए; मांसाहार, मद्यपान, शिकार, हत्या, दंगा, लूटपाट आदि दुःसाहसों एवं दुर्व्यसनों में शक्ति का दुर्व्यय किया जाए, अथवा विलासिता एवं कामुक उत्तेजना आदि में अपव्यय की जाए तो प्राणशक्ति का ध्वंस बहुत शीघ्र हो सकता है। नैतिक, धार्मिक मर्यादाओं का, योग्य साधनों एवं परिस्थितियों का ध्यान न रखकर दुःख एवं उद्दण्डता अपनाई जाती है, वहाँ भी निःसंदेह प्राण ऊर्जा नष्ट भ्रष्ट हो जाती है। .....प्राणों की शक्ति बढ़ती है-प्राणों का अपव्यय न करने से, प्राणों को निःस्पन्द करने से। पूर्वोक्त दशविध प्राणों की शक्ति का अभिवर्धन प्रत्येक प्राण की ऊर्जा (शक्ति) को संचित करने से, तथा उसका उपयोग चरम लक्ष्य की दिशा में, कर्म-मुक्ति की साधना में करने से होता है। यह तथ्य आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर बताया है। प्राण-संवर का उद्देश्य और वास्तविक स्वरूप भी इसी प्रकार का है। श्रवणेन्द्रिय की क्षमता : द्रव्यश्रोत्रेन्द्रियनिरोध से
सर्वप्रथम श्रवणेन्द्रिय बल प्राण को ही लें। संसार की सर्वाधिक संवेदनशील 'रडार' मनुष्य की कर्णेन्द्रिय है। ध्वनि कम्पनों को स्थूल (द्रव्य) कर्णेन्द्रिय कितने भेद-प्रभेद के साथ पकड़ता है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कोलाहल रहित स्थान में मक्खी की भिनभिनाहट जैसी वारीक आवाज छह फीट दूरी से सुनी जा सकती है। अगर द्रव्य कर्णेन्द्रिय का निरोध (संघर) कर दिया जाए यानी बाहर की आवाज को रोक दिया जाए तो केवल भीतर की ध्वनियाँ स्पष्ट सुनाई देने लगती हैं, मानो शरीर यंत्र के वे कलपुर्जे अपनी गतिविधियों की सूचना स्पष्टतः चिल्ला-चिल्लाकर
- रक्तसंचार, 'श्वास-उच्छ्वास, आकुंचन-प्रकुंच ने, ग्रहण-विसर्जन, स्थगनपरिभ्रमण, विश्राम, स्फुरणा, शीत-ताप जैसे परस्पर विरोधी अथवा पूरक अगणित क्रियाकलाप शरीर के अंगोपांगों-अवयवों में निरन्तर होते रहते हैं। प्रत्येक हलचल ध्वनि तरंगें उत्पन्न करती हैं। ऐसी स्थिति में उनका अव्यक्त शब्द प्रवाह द्रव्य श्रोत्रेन्द्रिय संवर की स्थिति में कानों तक पहुंच सकता है। और संवेदनशील श्रोत्रेन्द्रिय उन्हें ‘भलीभाँति सुन भी सकती है।
१. अखण्ड ज्योति, मई १९७६ से यत्किंचिद् भावांश ग्रहण पृ. १९
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