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९०० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
चला जाता है, तो प्राणी समाप्त हो जाता है। प्राणी का जीवन प्राण पर आधारित है। प्राण होता है, इसीलिए प्राणी, प्राणी कहलाता है। प्राणी चाहे छोटा हो, चाहे बड़ा, चींटी हो, चाहे हाथी, सभी में प्राण विद्यमान हों, तभी प्राणी, प्राणी कहलाता है, अन्यथा मृत प्राणी को लोग मुर्दा कहते हैं। जैनागमों में प्राणी' के लिए 'प्राण' शब्द का भी प्रयोग यत्र-तत्र मिलता है।
एक जीवित प्राणी और मृत प्राणी में क्या अन्तर है ? जीवित प्राणी में प्राणविद्यमान होता है, इसलिए वह आँखों से देखता है, कानों से सुनता है, जीभ से चखता है, • हाथ से किसी चीज को छूकर स्पर्श का अनुभव करता है, हाथ-पैर हिलाता है; किन्तु मृत.. प्राणी में ये सब चेष्टाएँ नहीं होतीं, वह हिल-डुल नहीं सकता, जरा-सी भी गति, स्पन्दन, धड़कन, क्रिया या चंचलता उसमें नहीं होती। इस दृष्टि से प्राण का फलितार्थ हुआसक्रियता, गतिशीलता, स्पन्दन तथा चंचलता; और निष्प्राण का फलितार्थ हुआ - निष्क्रियता, गतिहीनता, निःस्पन्दता और स्थिरता ।
देहधारी प्राणी के लिए प्राण ही जीवन है। जीवन का मूल आधार प्राण है। जहाँ प्राण क्षत-विक्षत हो जाता है, हताहत हो जाता है, प्राणों को चोट पहुँचती है, अथवा प्राणधारा किसी अवयव में अवरुद्ध हो जाती है, वहाँ वह अवयव निष्क्रिय, निःस्पन्द, शून्य, जड़वत् एवं नष्ट भी हो जाता है। लकवा मार जाने पर, पक्षाघात हो जाने पर जीवित मनुष्य के एक पक्ष के अंग जड़वत् शून्य और निष्क्रिय हो जाते हैं।
इसके अतिरिक्त जैसा कि पहले कहा गया था, जिस व्यक्ति के जीवन में प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है, अथवा कम हो जाती है अथवा कुण्ठित एवं क्षतिग्रस्त हो जाती है, वह व्यक्ति जीता हुआ भी मृतवत् रहता है, उसमें किसी भी सत्कार्य को तथा संसाधना को करने का उत्साह, साहस, उमंग, ओज, तेज, ऊष्मा और जोश नहीं होता। वह जीवन तो जीता है, किन्तु प्राण शक्ति से क्षीण होकर वह जीवित लाश को किसी तरह ढोता है। '
प्रश्न होता है, जब प्राण प्रत्येक प्राणी के शरीर में विद्यमान रहता है, तब प्राण रहते हुए भी प्राणी के तन-मन आदि निष्प्राण से, जड़-मृतवत् निष्क्रिय-से क्यों हो जाते हैं? क्या प्राण एक प्रकार को नहीं है ?
इस दृष्टि से जब हम अध्यात्म ग्रन्थों, शास्त्रों, एवं योगसाधनासूत्रों का पारायण करते हैं तो यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है, कि प्राण दो प्रकार के हैं - एक सामान्य प्राण और दूसरा विशेष प्राण ।
१. “ सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वें सत्ता ण हंतव्वा'
- आचारांग श्रु. १ अ. ४ उ. २
२. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. ५६-५७
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