________________
प्राण- संवर का स्वरूप और उसकी साधना ८९५
प्राणशक्ति ही प्राणी के जीवन में कार्यक्षमता और सक्रियता की उत्पादक
निष्कर्ष यह है कि इस प्राण शक्ति के अभाव में शरीर, मन और मस्तिष्क की भौतिक क्षमता कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न हो, उसका कोई उपयोग नहीं हो सकता। कई मनुष्यों में शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक क्षमताएँ होते हुए भी तथा उपयुक्त साधन सहयोग होते हुए भी वे क्यों कुछ नहीं कर पाते ? इसका कारण ढूंढ़ने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि साहस के रूप में प्राणशक्ति का अभाव ही इस शिथिलता का प्रमुख कारण है। विद्युत्, भाप या तेल से जनित शक्ति न रहने पर इंजन चलने बंद हो जाते हैं, भले ही उनके कल-पुर्जे सही हों, मशीन भी कार्यक्षम हो ।
इसी प्रकार प्रत्येक जीव के जीवन में अपने-अपने कर्मानुसार प्राप्त पर्याप्त प्राणशक्ति न हो तो शरीर के अवयवों, इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि का संचालन बंद हो जाता है, भले ही वे सभी अवयव, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिरूपी उपकरण ठीक हों, अविकल हों। जिस प्रकार मशीनों के चलने में विद्युत्, भाप या तेल से जनित ऊर्जा शक्ति उनमें कार्यक्षमता एवं सक्रियता उत्पन्न करती है, उसी प्रकार मन-बुद्धि- इन्द्रियादि सहित शरीरयंत्र में भी कार्यक्षमता या सक्रियता प्राणों से जनित ऊर्जा शक्ति (तैजस शक्ति) ही उत्पन्न करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो, जो काम मशीनों के चलने में तेल, भाप या बिजली की शक्ति करती है, वही काम साहस के रूप में प्राणबल के सहारे मानव आदि की सत्ता करती हैं।
प्राण क्या करता है? उसके बिना क्या नहीं होता?
बाह्य पराक्रम तो दृश्यरूप है, परन्तु आन्तरिक पराक्रम अदृश्यरूप है, उसी का नाम 'प्राण' है। वही आन्तरिक वीर्य है। वह कभी साहस के रूप में काम करता है, कभी आत्मविश्वास के रूप में और कभी दृढ़ इच्छाशक्ति या विल पावर, अथवा संकल्पशक्ति के रूप में काम करता है। कभी मन में सत्कार्य करने की उमंग जगाता है, और कभी समर्थ सक्रियता का संचार करता है।
प्राण ही एक माने में ऊर्जाशक्ति है, अथवा तैजस (विद्युत) शक्ति है। आपने देखा होगा कि किसी भगीरथ कार्य को सम्पन्न करने के लिए जब तक भीतर का उत्साह न जगे, अंत में साहस का संचार न हो, आत्मविश्वासपूर्ण उमंग न उठे, इच्छाशक्ति या संकल्प शक्ति की आन्तरिक स्फुरणा का ज्वार न उमड़े, तब तक शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ आदि कितनी ही सक्षम और सुगठित क्यों न हों, उनमें समर्थ सक्रियता तथा अपेक्षित साहस की भावोर्मियों का संचार नहीं होता । अर्धमृतक जैसी या अर्ध-मूर्च्छित जैसी अन्तश्चेतना (वीर्यहीन चेतना) के आधार पर कोई भी भगीरथ सत्कार्य या साधना में सत्पुरुषार्थ नहीं हो सकता!'
१. अखण्ड ज्योति, मार्च १९७६ से भावांश ग्रहण पृ. १३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org