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८६८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
आद्य शंकराचार्य ने सत्संग का महत्त्व बताते हुए कहा है
"क्षणमिह सज्जन-संगतिरेका, भवति भवार्णव-तरणे नौका।"
साधु-पुरुषों का एक क्षण का भी सत्संग, भव-सागर पार होने के लिए नौका स्वरूप है। ऐसी है, सत्संग की, साधु-उपासना की प्रबल शक्ति! आन्तरिक सत्संग मनःसंवर में तत्काल सहायक
स्वामी विवेकानन्द ने इसी तथ्य का समर्थन करते हुए आन्तरिक सत्संग का भी महत्त्व बताया है-"बाह्य सत्संग की जैसी शक्ति बतलाई गई है, वैसी ही आन्तरिक सत्संग की भी है। (बाह्य-सत्संग के साथ-साथ) ॐकार का बार-बार जप करना और उसके अर्थ का मनन करना ही आन्तरिक सत्संग है। जप करो और उसके साथ उस शब्द के अर्थ का ध्यान करो। ऐसा करने से तुम स्वयं अनुभव करोगे कि हृदय में ज्ञानालोक आ रहा है, आत्मा (ज्ञानादि के प्रकाश से) प्रकाशित हो रही है। (आन्तरिक सत्संग में) ॐशब्द पर तो मनन करोगे ही, साथ ही उसके अर्थ पर भी मनन करो। कुसंग छोड़ दो, क्योंकि पुराने (अशुभ कर्म-संस्कारों के) घाव के चिह्न अभी भी तुममें बने हुए हैं। उन पर कुसंग की गर्मी लगने भर की देर है कि बस, वे फिर से ताजे हो उठेंगे। ठीक उसी प्रकार हम लोगों में जो उत्तम संस्कार हैं, वे भले ही अभी अव्यक्त हों, पर (बाह्य एवं आन्तरिक) सत्संग से वे पुनः जाग्रत-व्यक्त हो जाएँगे। संसार में सत्संग से पवित्र और कुछ नहीं है, क्योंकि सत्संग से ही वे शुभ संस्कार चित्तरूपी सरोवर के तल से ऊपरी सतह तक उठ आने के लिए उन्मुख होते हैं। प्रणव (ॐ) जाप के अर्थसहित चिन्तनरूप आन्तरिक सत्संग से एकाग्रता प्राप्त होती है। उससे अन्तर्दृष्टि और आत्मनिरीक्षण का विकास होगा, तथा एकाग्रता में आने वाली विघ्नबाधाओं से मुक्ति मिलेगी।" श्रद्धेय त्रिपुटी के प्रति श्रद्धा-भक्ति मनःसंवर की साधना में सहायक .
(२) परमात्मा, गुरु और सद्धर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति मनःसंवर में सहायकपरमात्मा (अरिहन्त एवं सिद्ध परमात्मा) गुरु एवं रत्नत्रयरूप सद्धर्म इन तीन तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धा-भक्ति मनःसंवर की साधना को बहुत आसान बना देती है। इन तीनों के प्रति
१. (क) 'मन और उसका निग्रह' से भावांश ग्रहण, पृ. ५८ (ख) सत्संग के दूरगामी फल के लिए देखें यह पाठ-"तहारूवाणं भंते! समणं वा माहणं वा
पज्जुवासमाणस किं फला पज्जुवासणा? (उ.) सवणाफला (प्र.) सवणे किं फले? (उ.) णाणफले।"""विण्णाणफले, पच्चक्खाणफले, संजमफले, अणण्हय (अनानव-संवर) फले, तवफले, वोदाणफले, अकिरियफले, णिव्वाणफला। "णिव्वाणे किं फले? (उ.) “सिद्धि-गइ-गमण-पज्जवसाण फले समणाउसो!"
-स्थानांग सूत्र स्थान ३,उ. ३, सू. ४१८ (ग) विवेकानन्द साहित्य, खण्ड १, पृ. १३५/१३६ (घ) “तज्जपस्तदर्थभावनम्।"-पातंजल योगसूत्र पाद १/२८ सू.
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