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८९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आनव और संवर (६) ।
साधक को यह नहीं सोचना चाहिए कि अवचेतन मन में केवल अशुभ विचारों का ही भण्डार है। अवचेतन मन में उसी के अतीत के शुभ एवं उदात्त विचार तथा अनुभव बीजरूप में संग्रहीत हैं। अर्थात-अवचेतन मन ने मनःसंवर-प्रयत्न के साधक और बाधक (सहायक और विरोधी) दोनों प्रकार के विचार संचित कर रखे हैं। साधक का प्रयल यह रहना चाहिए कि वह विरोधी विचारों को कम करे और सहायक विचारों को बढाए।
मनःसंवर की साधना को आसान बनाने के लिए साधक को महत्त्वपूर्ण कार्य तो अवचेतन मन को शुद्ध करने की दिशा में ही करना होगा। दूसरी ओर उसे पूर्ण संवर · द्वारा जीवन के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु अतिचेतन-अवस्था को ही अपना एकमात्र गन्तव्य बनाना चाहिए। अन्यथा, न तो वह चेतन (ज्ञात) मन का संयम कर सकेगा और न ही अवचेतन मन का, क्योंकि चेतन और अवचेतन (अचेतन अज्ञात) मन का निग्रह करने और परस्पर संघर्ष करने में ही उसकी सारी मनःशक्ति खर्च हो जाएगी, वह अपने अन्तिम लक्ष्य (सर्वकर्ममुक्ति परमात्मपद प्राप्ति) तक नहीं पहुँच सकेगा। इन दोनों मनों के द्वन्द्व में साधक क्षुब्ध और अशान्त होता रहेगा।
___ अवचेतन मन कभी-कभी चेतन मन के साथ छल करता है। मनःसंवर साधक जब किसी प्रलोभन या दुर्बलता से संघर्ष कर रहा होता है, तभी अकस्मात् उसके मानस पटल पर उससे अधिक दुर्बलता का चित्र उभर आता है। साधक भयभीत होकर हैरत में पड़ जाता है। वह भविष्य की चिन्ता न करके वर्तमान प्रलोभन के प्रवाह में बह जाता है। साधक को दृढ़ होकर उसी क्षण अज्ञात मन की उस अवांछनीय स्थिति को निरुद्ध करने हेतु अपने संकल्प पर दृढ रहना है।
___हम जानते हैं कि चेतन (ज्ञात) मन ही अचेतन (अज्ञात) मन का कारण है। हमारे जो लाखों पुराने सचेतन विचार और कार्य थे, वे ही घनीभूत होकर प्रसुप्त हो जाने पर हमारे अचेतन (अज्ञात) विचार (संस्काररूप) बन जाते हैं। उन प्रसुप्त अज्ञात संस्कारों (विचारों) में यदि बुरा करने की शक्ति है तो अच्छा करने की भी शक्ति है। मनःसंवर साधक का प्रयत्न होना चाहिए-उन सहस्रों गुप्त संस्कारों पर अधिकार करना, अज्ञात संस्कारों से पूर्ण अवचेतन मन को चेतन मन के अधीन लाना; ताकि वह अपना पूर्ण स्वामी बन जाए।
निष्कर्ष यह है कि अवचेतन मन के संयम से ही मनःसंवर की साधना का कार्य पूरा नहीं हो जाता। उससे भी आगे और अधिक कार्य करना है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द का मनःसंवर साधना की परिपूर्णता के लिए मार्गदर्शन मननीय है
१. 'मन और उसका निग्रह' से भावांश उद्धृत, पृ. ११०,११६
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