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मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८८९ साधक आश्चर्य में पड़कर मन ही मन सोचता है-ओ हो! मैं जितना-जितना मनोनिग्रह के अभ्यास के लिए त्याग, तप, संकल्प, नियम, व्रत आदि करता जाता हूँ, उतना-उतना यह मन तो खराब ही होता जाता है। जितना-जितना मैं गम्भीरतापूर्वक मन को धर्माचरण, प्रभु भजन, भक्ति, प्रार्थना आदि में लगता हूँ, उतना-उतना यह इन कार्यों से दूर भागता जा रहा है, इसमें दिनानुदिन गिरावट ही महसूस हो रही है।
इस स्थिति को देखकर कच्चा साधक मनोनिग्रह का या मनःशुद्धि का अभ्यास अधूरा ही छोड़ देता है। परन्तु मनःसंवर के साधक को अवचेतन मन के इस अन्धकारपूर्ण (अज्ञात) क्षेत्र को साफ करने की प्रक्रिया और उसमें आने वाली प्रारम्भिक विघ्न-बाधाओं को जान लेनी चाहिए। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर भी उसे चिन्तित व व्यथित नहीं होना चाहिए।
इसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-जब साधक अध्यवसायपूर्वक ज्ञात (चेतन) मन को नियंत्रित-संवृत करने के लिए प्रयत्नशील होता है, तब अवचेतन (अज्ञात) मन की विरोधी शक्तियों से संघर्ष अवश्यम्भावी है। ये विरोधी शक्तियाँ और कोई नहीं उसी के द्वारा संचित संस्कार हैं। उसने जो भी सोचा या किया है, वही संस्कार उसके अवचेतन मन पर संचित-अंकित हो जाते हैं, और निमित्त मिलते ही वे संचित संस्कार अवचेतन मन से ऊपर उठकर फिर से अभिव्यक्त होना चाहते हैं। ज्ञात मन से व्यक्ति उस समय जो कुछ सोच रहा है, ये अगर उसके विरोधी होते हैं तो परस्पर संघर्ष ठन जाता है। परन्तु मनःसंवर साधक को इस संघर्ष से घबराना नहीं चाहिए। उसे विधिपूर्वक अवचेतन मन को साफ करने के लिए सतत जुटे रहना चाहिए।
जैसे-किसी को स्याही की दवात साफ करनी है। इसके लिए वह पहले दवात में साफ पानी डालेगा। इससे सूखी स्याही पानी में घुल जाएगी और कुछ देर तक रंगीन पानी ही बाहर निकलेगा। उसके पश्चात् कुछ अधिक साफ होने पर कुछ कम स्याही वाला पानी बाहर आएगा। अन्त में, साफ पानी दवात में डालने पर उसमें से बिलकुल साफ पानी ही बाहर निकलेगा। - ठीक इसी प्रकार की प्रक्रिया अवचेतन मन को साफ करने की है। पवित्र विचार
साफ पानी के समान हैं। अतः सर्वप्रथम अवचेतन मन में पवित्र विचार डाले जाए। उन्हें मनःसंवर साधक अपने भीतर गहराई में उतरने दे। इसके लिए वह पवित्र विचारों को बार-बार दोहराता जाए, ऑटोसजेशन' देता जाए। पवित्र विचार भीतर डालने के बाद एक विशेष अवस्था में यदि उसके भीतर से कलुषित विचार (श्याह जलवत्) बाहर निकलें तो भयभीत नहीं होना चाहिए। उसे लगातार पवित्र विचार डालते रहना चाहिए। जब भीतर से पवित्र विचार ही बाहर निकलें, तब समझ लेना चाहिए कि अवचेतन मन अब साफ हो गया है और तब चेतन (ज्ञात) मन का संयम (संवर) कठिन न होगा।
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