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८६६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
हैं, वे सात्त्विक हैं, जिनकी निन्दा करते हैं, वे तामसिक हैं और जिनकी उपेक्षा करते हैं दे राजसिक हैं।
भागवत में उक्त श्लोक का मथितार्थ इस प्रकार है - शास्त्र वे ही पढ़ने चाहिए, जो परमात्मतत्त्व प्राप्ति का तथा कर्ममुक्ति का, बन्धनमुक्ति का पाठ पढ़ाते हैं। हानिकारक तामसिकता का या प्रवृत्ति प्रेरक चंचलता - उत्पादक राजसिकता का पाठ पढ़ाने वाले चौर्यशास्त्र, कामशास्त्र तथा लौकिक चातुर्य की प्रेरणा देने वाले ग्रन्थों का पठन-पाठन नहीं करना चाहिए। पवित्र सात्त्विक, (जैनविधि से प्रासुक, एषणीय) जल का व्यवहार करना चाहिए, बिना छने हुए, या सुगन्धित भांग आदि मिश्रित जल या मद्यजल का नहीं। . आध्यात्मिक दृष्टि सम्पन्न (सम्यग्दृष्टि वाले) लोगों के साथ ही मेलजोल या सम्पर्क, संग करना चाहिए, मिथ्या दृष्टि, अज्ञानी या दुष्ट दुर्जनों के साथ नहीं । आचारांग में भी बताया है- "बाल (अज्ञानी) जीवों के संग-संसर्ग से दूर रहो । " विविक्त पवित्र, एवं एकान्त स्थान में निवास हो, और नपुंसकों का या पशुओं का जहाँ जमघट हो, निवास हो, वहाँ नहीं। ध्यानाभ्यास के लिए सात्त्विक समय ब्राह्म मुहूर्त्त का है । निःस्वार्थ एवं सात्त्विक कर्म करने चाहिए, स्वार्थयुक्त एवं हानिकारक नहीं। धर्म के शुद्ध एवं हानिरहित रूपों को ग्रहण करना चाहिए, प्रदर्शनकारी, अशुद्ध एवं हानिकारक रूप त्याज्य समझने चाहिए। ध्यान आध्यात्मिक जीवन का विकास करने वाला ही करना चाहिए, विषय-भोगों का या रागद्वेषकारक नहीं। सात्त्विक एवं पवित्र मंत्रों का जाप करना चाहिए, तामसिक एवं राजसिक मंत्रों का नहीं। संस्कार वे ही प्राप्त करने चाहिए, जो धर्मवर्द्धक हों, सात्त्विक हों, तामस एवं राजस पापकारक या अधर्मवर्द्धक नहीं। "
उपर्युक्त दस बातों में मनःशुद्धि के लिए सत्त्व गुणयुक्त बातों का ही आश्रय लेना
चाहिए।
अपूर्ण मनः शुद्धि के लिए भी दृढ़ इच्छा एवं श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक अभ्यास अनिवार्य
इस प्रकार का दीर्घकाल तक दृढ़ श्रद्धा, और प्रबल इच्छा के साथ अभ्यास करने से मनःसंवर का साधक अपने मन में सत्त्व की प्रधानता लाने तथा सत्त्वशुद्धि करने में समर्थ हो जाता है, तो समझ लेना चाहिए, मनःसंयम की लड़ाई में आधे से अधिक पर विजय प्राप्त कर ली; इसे पूर्णतया मन:संवर नहीं समझना चाहिए। पूर्णतया मनः संवर तो सत्त्वगुण को भी छोड़ने पर होता है। गीता में बताया है कि "प्रकृति" से उत्पन्न हुए ये
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(क) श्रीमद्भागवत ११ / १३/१-३
वही, श्रीधरटीका ११/१३
(ग) आगमोऽयः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च। ध्यानं मंत्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः ।
- वही, ११/१३/४
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