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८७८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६)
'साधक मन से भी उनको प्राप्त करने के लिए प्रार्थना (अभिलाषा) न करे। आशय
यह है कि काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, राग (मोह), द्वेष, ईर्ष्या अथवा इसी प्रकार के अन्य प्रलोभनकारी गलत, अनर्थकर विचार मन में उपस्थित होने पर तत्काल उन्हें खदेड़ने का प्रयास करे ।
प्रलोभनकारी आम्नवयुक्त विचारों का सामना कैसे करे ?
कई बार ऐसे आनवकारी प्रलोभनपूर्ण विचार पूर्वसंस्कारवश मनः संवर के साधक के अन्तर में सहसा घुसकर खलबली मचा देते हैं। साधक भी परिपक्व न होने के कारण ऐसे प्रलोभनकारी विचारों के जाल में फँस जाता है, ऐसे समय में वह साधक क्या करे ? कैसे उनका सामना करके मनः संवर में पुनः सुस्थित हो ? इसके लिए एक पाश्चात्य सन्त सेंट फ्रांसिस डी. सेल्स के कुछ व्यावहारिक सुझाव ऐसी आपातकालिक अवस्था में यथोचित परिवर्तन परिवर्द्धन के साथ सहायक सिद्ध होंगे। इनका अभ्यास मनःसंवर के अपरिपक्व साधक के लिए बहुत ही उपयोगी है।'
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(१) गाँवों में बच्चे जब भालू या भेड़िया देख लेते हैं, तो झट भाग कर माता या पिता की बांहों में समा जाते हैं, या फिर वे सहायता एवं रक्षा के लिए उन्हें जोरों से पुकारते हैं। ठीक इसी प्रकार तुम भी परमात्मा की ओर अभिमुख होकर उनकी कृपा एवं सहायता की प्रार्थना (याचना ) करो।
जैसे कि जैनपरम्परा में चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) के पाठ में स्वस्थ बोधिलाभ, उत्तमसमाधि एवं सिद्धि प्रदान करने की तथा शक्रस्तव (नमोत्थुणं) के पाठ में 'चक्खुदयाणं मग्गदयाणं' आदि विविध विशेषणों द्वारा परमात्मा की स्तुति एवं प्रार्थना की है। इसी प्रकार प्रार्थना करो, ताकि प्रलोभन, तुम्हारे मन में प्रवेश न कर सकें या टिक.. नसकें।
(२) प्रलोभन के आने पर विरोध प्रदर्शित करते हुए घोषणा करो- "मैं कभी उसके फेर में नहीं पहूँगा।" प्रलोभन के विरोध में ईश्वर से सहायता माँगो तथा यह भी घोषणा करते रहो- 'जब तक यह प्रलोभन मन पर सवार रहेगा, तब तक मैं तुम्हारी कुछ भी न सुनूँगा।'
(३) घोषणा करते तथा प्रलोभन की माँग का अस्वीकार करते समय प्रलोभन की ओर बिलकुल देखो -सोचो मत, अन्यथा, बलवान् प्रलोभन तुम्हें डिया सकता है। इसलिए एकमात्र प्रभु पर मनोनेत्रों को टिकाए रखो।
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Introduction to the Devout Life (Saint Francis D, Sales) P. 240-241
(प्रकाशक : डबल डे एण्ड कम्पनी, गार्डनसिटी, न्यूयार्क १९६२)
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