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मनः संवर की साधना के विविध पहलू ८८३
अन्य व्रतों, नियमों, संकल्पों, प्रतिमाओं या प्रतिज्ञाओं तथा समिति - गुप्ति एवं बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण आदि की साधनाओं में भी अधिकाधिक सहायता मिलती है। '
जिस मनः संवर साधक का मन सर्वोच्च लक्ष्य के प्रति एकाग्र नहीं है, वह नाना नियमों, क्रियाकाण्डों और कष्टदायक बाह्य तपश्चरण करते रहने पर भी मनः संक्षोभ से युक्त रहेगा; क्योंकि उसका मन बिखरा हुआ है। परीषहों और उपसर्गों के आने पर उसका मन भय (सप्तविध भय) से डांवाडोल हो उठेगा। वह पुण्य कर्मानव की ओर झुक जाएगा, पुण्य-पाप दोनों आनवों से ऊपर उठकर शुद्ध अबन्धक कर्म (अकर्म ) - रत्नत्रय साधक आचरण में निष्ठावान् नहीं रह सकेगा । उसकी संवर-साधना सफल नहीं हो सकेगी।
इसी तथ्य का समर्थन 'धम्मपद' में किया गया है - जिसका चित्त बिखरा हुआ नहीं (उच्चतम लक्ष्य में केन्द्रित ) है, जिसका मन विक्षोभ से रहित है; जिसका अन्तःकरण पुण्य और पाप दोनों का चिन्तन नहीं करता, ऐसे जागरूक व्यक्ति (मनः संवर साधक) को (परीषहों, उपसर्गों, कष्टों एवं विघ्न बाधाओं के आ पड़ने पर ) कोई भय नहीं होता।
(१९) अप्रमाद का अभ्यास मनःसंवर में अतीव सहायक - मनः संवर के साधक के लिए प्रमाद बहुत ही घातक है। जरा सी असावधानी ही उसके मन को छल कर विपरीत मार्ग (उन्मार्ग) की ओर ले जा सकती है। अपने उच्चतम लक्ष्य के प्रति जरा-सा भी प्रमाद या असावधानी अथवा गफलत मनः संवर साधक के मन को विक्षुब्ध कर सकती है।
प्रमाद जिसके स्वभाव में घुस गया है समझ लो उसकी मनः संवर साधना अभी कच्ची है, उसकी संवरसाधना में निष्ठा नहीं है, उसने अपने मन को उच्चतर आन्तरिक प्रवृत्तियों में संलग्न रहने के लिए प्रशिक्षित एवं अभ्यस्त नहीं किया है।
निश्चय नय की दृष्टि से आत्मभाव या परमात्म-भाव से हटकर परभावों अथवा विभावों (कषायादि) में चले जाना ही प्रमाद है। सर्वोच्च लक्ष्य के प्रति निष्ठा में कमी ही असावधानता या प्रमत्तता है।
आद्यशंकराचार्य ने इस सम्बन्ध में विवेक-चूड़ामणि में सुन्दर प्रकाश डाला है" साधक को ब्रह्मनिष्ठा में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। ब्रह्मातनय भगवान् सनत्कुमार ने प्रमाद को मृत्यु ही कहा है। ज्ञानी के लिए अपने आत्म-स्वरूप की उपलब्धि
१. 'मन और उसका निग्रह' से भावांश ग्रहण पृ. ८२
२. अनवस्सित चित्तस्स अनव्वाहा चेतसो ।
पु पाप-पहीणस्स ठित जागरतोऽभयं ॥
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- धम्मपद ३९
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