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मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८६९ अनन्य एवं निष्काम भक्ति का अभ्यास किया जाए तो मनःसंवर में अचक और प्रबल सहायता मिलती है। यद्यपि इन तीनों के प्रति अनुराग प्रशस्त राग है, फिर भी मनःसंयम की विन-बाधाओं को दूर करने का आश्चर्यजनक कार्य इससे होता है।
परमात्मा के प्रति अनुराग (भक्ति) के विषय में श्री रामकृष्ण परमहंस के निम्नोक्त उद्गार मननीय हैं-"बाघ जैसे दूसरे पशुओं को खा जाता है, वैसे ही अनुराग रूपी बाघ काम-क्रोध आदि रिपुओं को खा जाता है। एक बार ईश्वर पर अनुराग होने से फिर काम-क्रोध आदि नहीं रह जाते। गोपियों की ऐसी ही अवस्था हुई थी। श्रीकृष्ण पर उनका ऐसा ही अनुराग था।"
वस्तुतः काम-क्रोधादि अन्य रिपु जब दूर हो जाते हैं तो मन शुद्ध हो जाता है। शुद्ध मन सरलता से नियंत्रण में आ सकता है। पर जो व्यक्ति इन त्रिविध श्रद्धेय तत्त्वों के प्रति अविश्वासी हैं, उन्हें उसे वश में करने के लिए दीर्घकाल तक बहुत कठोर परिश्रम करना पड़ता है। जब तक वह संसारमार्गी अशुभ आम्नवों के उत्पादक विभावों या परभावों के प्रति विश्वास को नहीं छोड़ता, तब तक उसकी श्रद्धा उक्त श्रद्धेय त्रिपुटी के प्रति जमनी कठिन है।
मनःसंवर के साधक में जब पूर्वोक्त श्रद्धेय त्रिपुटी के प्रति श्रद्धा-भक्ति का संवेग तीव्रता से बढ़ता है, तब स्वाभाविक है कि उसका मन उसी त्रिपुटी में रमता रहेगा, उसी पर केन्द्रित हो जाएगा, फलतः उक्त श्रद्धेय त्रिपुटी के सद्गुणों को आत्मसात् कर लेगा, जिससे मन प्रशान्त होगा, बुद्धि स्थिर होगी और वह पवित्रता की धारा में बहने लगेगा। - अतःप्रस्तुत त्रिपुटी के प्रति श्रद्धा भक्ति से अनायास ही मन पर नियंत्रण हो जाता है। इनकी अनन्य भक्ति के प्रभाव से मन विषयों से पराजित नहीं होता, मनःसंवर शीघ्र सध जाता है।' मन का स्वामी बनने हेतु योगांगों का अभ्यास आवश्यक
(३) योगांगों का अभ्यास-अपने मन का स्वामी बनने के लिए साधक को यम और नियम का अभ्यास करना चाहिए; व्रतबद्ध एवं नियमबद्ध रहना चाहिए। यही आत्मानुशासन का यथार्थ मार्ग है। योगदर्शन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांचों को यम तथा शौच (बाह्याभ्यन्तर पवित्रता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय,
और ईश्वर-प्रणिधान आदि को 'नियम' कहा है। ___ जैनदृष्टि से इन पाँचों को तथा तीन गुप्ति, पंच समिति, दशविध उत्तम धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र को संवरं का कारण बताया गया है। १. (क) 'मन और उसका निग्रह' से भावांश ग्रहण, पृ. ११९-१२० . - (ख) 'म' कृत, श्री रामकृष्ण-वचनामृत भा. १, पंचम संस्करण पृ. २४३ २. (क) 'अहिंसा-सत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।' 'शौच-सन्तोष-तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।"
-पातंजल योगसूत्र पाद २, सू. ३०, ३२
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