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मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८७३
उसके बैठने पर वे भी बैठ जाती हैं। ठीक इसी प्रकार मन के नियंत्रण में आ जाने पर इन्द्रियाँ भी नियंत्रित हो जाती हैं। प्रत्याहार का अभ्यास इच्छाशक्ति को विकसित करता है। उससे मन पर नियंत्रण सहज हो जाता है। '
इसी को जैन परिभाषा में प्रतिसंलीनता कहा जा सकता है। जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है स्त्रियाँ ही नहीं, स्त्रियों के चित्रों से चित्रित दीवार हो अथवा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नारी हो, साधक टकटकी लगाकर न देखे। कदाचित् किसी नारी पर दृष्टि पड़ जाए तो वह तुरन्त उसी तरह वहाँ से दृष्टि हटा ले, जिस तरह मध्याह्नकालीन तेजस्वी सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि हटा ली जाती है। ठीक इसी प्रकार जिस विषय पर आँख, कान आदि इन्द्रियाँ पड़ें कि साधक सावधान होकर तुरन्त वहाँ से उस इन्द्रिय को हटा ले, इसका नाम भी प्रत्याहार है। अपनी इन्द्रियों को विषयों में प्रतिष्ठित न होने दे। यह कार्य मन का है। मन ही विषयों में जाती हुई इन्द्रियों को तुरन्त रोक सकता है। इसे दशवैकालिक में 'प्रतिसमाहार' कहा है। '
अशुभ में जाते हुए मन को प्रतिपक्षी शुभ भावों में मोड़ना भी मनोनिग्रह का उपाय
(१०) तात्कालिक शुभ विचारों में मन को मोड़ने का अभ्यास भी मनोनिग्रह या मनःसंवर का उपाय है। यह भी प्रत्याहार का एक प्रकार है। पूर्वोक्त मूलभूत साधनाओं का अभ्यास करते हुए भी यदि मन नियंत्रण से बाहर होने लगे, अथवा प्रबल विपरीत शक्तियाँ, विचार, संवेग, प्रवृत्तियाँ और भावनाएँ मन पर हावी होकर उसे शुभप्रवृत्ति से हटाने लगें तो ऐसी संकटपूर्ण अवस्थाओं में दमकल के समान अहर्निश ऐसी आपातकालीन स्थिति (इमर्जेन्सी) में मन को नियंत्रण के लिए तैयार रखना चाहिए। पातंजल योगदर्शन में इसे 'विपरीतभावन' कहते हैं, जो मनोजय में बाधक वितर्क (हिंसादि विचार) आते ही तुरन्त मनोभाव को उसके प्रतिपक्षी विचार में जोड़ देना चाहिए।
उदाहरणार्थ तुम्हारे मन में क्रोध की बड़ी लहर उठ रही है, जो केवल तुम्हारी मनःशक्ति को ही भंग नहीं करेगी, बल्कि तुम्हारे तन मन के स्वास्थ्य को भी अत्यधिक क्षति पहुँचाएगी, यह देखकर तुम तुरन्त उसके विपरीत क्षमा की, उपशम (शान्ति) की या शुद्ध प्रेम की लहर उठा देते हो तो वह क्रोध की लहर तुरन्त शान्त हो जाती है। किन्तु वे विपरीत विचार अशुभ विचारों के उठने के प्रारम्भ में ही उठा देने चाहिए; अन्यथा जड़ जमा लेने पर फिर उन्हें उखाड़ना कठिन हो जाएगा।
१. (क) वही, पृ. ७४-७५
(ख) विवेकानन्द साहित्य खण्ड १ पृ. ८३
२. (क) देखें, प्रतिसंलीनता का स्वरूप नवतत्त्व प्रकरण, उत्तराध्ययन टीका आदि में।
-योगदर्शन पाद २ सू. ३३
३. (क) मन और उसका निग्रह से सारांश पृ. ८९-९०
(ख) वितर्क - बाधने प्रतिपक्ष भावनम् ।
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