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मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८६७
तीनों (सत्त्व, रज और तम ) गुण इस अविनाशी देही (जीवात्मा) को शरीर में जकड़कर बांध देते हैं। इन तीनों गुणों में से 'प्रकाश' करने वाला, निर्मल और विकार रहित सत्त्वगुण भी सुख की और ज्ञान की आसक्ति (ज्ञानाभिमान) से बांधता है।"
निष्कर्ष यह है कि पूर्ण मनःसंवर के लिए तो तीनों गुणों से परे जाना पड़ता है। स्वभाव में सत्त्वगुण की प्रधानता से शरीर और इससे सम्बद्ध वस्तुओं पर जो अध्यास (अज्ञान या मिथ्यात्व) है, उसे दूर किया जा सकता है। अनन्य भक्ति योग से तीनों गुणों का अतिक्रमण करने से व्यक्ति परब्रह्म तत्त्व से अभिन्नता प्राप्ति के योग्य हो जाता है। पूर्ण मनःसंवर प्राप्त होने पर मोक्ष के निकट पहुँच जाता है।'
मनःसंवर साधना में कतिपय सहायक कारण
मनःसंवर के लिए कतिपय सहायक कारण भी हैं, जिनसे मनोनिग्रह, मनोनिरोध एवं मनःस्थिरता में आसानी होती है।
मनोनिग्रह के ज्ञान-वैराग्य एवं अभ्यास में सरलतम सहायक : सत्संग
(१) सत्संग-मनोनिग्रह के लिए एक सरलतम उपाय है- सत्संग (साधु पुरुषों की संगति)। जैन दृष्टि से इसे पर्युपासना कह सकते हैं, जो धर्मश्रवण से प्रारम्भ होकर मुक्ति (सिद्धिगमन तथा संसारान्त) तक फलित होती है। स्थानांगसूत्र एवं भगवतीसूत्र में इसका विशद निरूपण मिलता है।
कई लोग अपनी प्रवृत्ति या परिस्थिति के कारण मनोनिग्रह या मनः संवर पर ..इतनी बारीकी के साथ विचार नहीं कर पाते, और न ही सत्त्वगुणप्रधानता को स्वभाव में ला पाते हैं, फिर वे जिस वातावरण में रहते हैं, वह मनोनिग्रह साधना के अभ्यास के लिए अनुकूल नहीं होता। इस समस्या के हल के लिए सत्संग सबसे सरल उपाय है।
जब व्यक्ति किसी तत्त्वज्ञ एवं चारित्रवान् निःस्पृह साधु के दर्शन, श्रवण करता है, उनके मुख से पवित्र हितकर वचनामृत का पान करता है, उनके सान्निध्य में बैठकर पर्युपासना करता है तो उनकी पवित्रता के उत्तम शक्तिमान परमाणु उसके अन्तर् में प्रविष्ट होते हैं, जो उसके रजस्-तमस् उपादान में शीघ्र परिवर्तन ला देते हैं, उस समय के लिए सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, जिससे जैन परिभाषा में कहें पुण्यवृद्धि होती है, पापाम्नव का क्षय या रूपान्तर हो जाता है। कदाचित् - उत्कृष्ट भावरस आए तो वह कर्मों के संवर एवं निर्जरा एवं मोक्ष का कारण भी बनता है। यह सत्संग अथवा स्वाध्याय (शास्त्र संग ) जितनी अधिक मात्रा में होगा, उतना ही स्थायित्व सत्त्वगुण की प्रधानता में आएगा तथा कर्मों का संवंर और क्षय भी होगा।
१. (क) 'मन और उसका निग्रह' से भावांश ग्रहण, पृ. ५५
(ख) भगवद्गीता अ. १४ श्लो. ५-६ ।
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