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मनःसंवर की साधना के विविध पहलू
मनः संवर की दुष्कर साधना भी सुकर हो सकती है
पूर्व-प्रकरण में उक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट है कि मनःसंवर के विविध रूप और स्वरूप हैं। और चंचल, विक्षिप्त एवं मूढ़ मन को, तथा जन्म-जन्मान्तर से आम्रवों में रमे हुए मन के संस्कारों को सहसा बदलना, संवर में लगाना और संवरनिष्ठ बनाना अत्यन्त कठिन कार्य है। परन्तु अभ्यास और वैराग्य द्वारा प्रशिक्षण और विवेक द्वारा, तदनुकूल वातावरण और अनुशासन के द्वारा तथा अधोगामी मन को ऊर्ध्वगामी बनाने हेतु विषयोन्मुखता से आत्मोत्थान की ओर मोड़ने से मनःसंवर की दुष्कर साधना भी सुकर
और सुगम हो सकती है। चाहिए दृढ़ इच्छाशक्ति और सुखभोग की स्पृहा से विरक्ति। सुखभोग की स्पृहा को कैसे संस्कारित करें, कैसे मोड़ें? .
यह सत्य है कि सुख की स्पृहा स्वाभाविक होने से आम व्यक्ति के रक्त मांस में यह इतनी गहराई तक घुली-मिली हुई है कि उसे निकालना बहुत ही कठिन है, तथापि यह सोचकर व्यक्ति को अपनी आन्तरिक अवस्था को जटिल और हीनता की भावना से ग्रस्त नहीं बना लेनी चाहिए कि हम बुरे हैं, इसलिए मनोनिग्रह हमारे बस की बात नहीं।
यदि व्यक्ति अनैतिक एवं मर्यादारहित तथा पापकर्मयुक्त इन्द्रियभोगों में लग जाता है तो अशुभ आसव के कारण पापकर्म का बन्धन दृढ़ हो जाता है और उसका बालिकं विकास रुक जाता है। जो व्यक्ति उच्चतम आदशों से प्रेरित होकर सांसारिक एषणाओं का त्याग कर देते हैं, ऐसे इने-गिने लोगों को छोड़कर शेष लोगों के लिए सुखामोग की लालसा की सन्तुष्टि के बिना जीवन जीना ही दूभर हो जाता है। ऐसी स्थिति में सुखभोग की स्पृहा के रहते मनुष्य की मनःसंवर की साधना कैसे अग्रसर हो सकती
पर इसका समाधान गीता, भागवत एवं जैनागमों में यत्र-तत्र किया गया है। प्रोगासक्त या भोगलालसारत रहना तो किसी भी हालत में ठीक नहीं है। सुखभोग की या सुखाकी प्रेरणा को ऐसे लोग मर्यादित या संस्कारित करें, अपने (आत्मा के) यथार्थ
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