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८५६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
पालन में दक्षं) है, वे (मोहोदयवश ) मन में कामभोगों की लहर आने पर भी स्वाध्याय, सदुपदेश या ज्ञानबल से, शुभ या शुद्ध भावों से पुनः संवर धर्म में प्रवृत्त हो जाते हैं, विषयभोगों से अपने मन को विरत (विरक्त) बना लेते हैं, जिस प्रकार पुरुषोत्तम रथनेमि ने अपने विचलित मन को पुनः संवर धर्म में सुस्थिर कर लिया था ।'
सारांश यह है कि मनःसंवर के साधक को भी स्वाध्याय, महापुरुषों की अनुभवसिद्ध वाणी तथा तदनुसार साधना मनःसंवर के पथ पर स्थिर कर सकती है।
१. देखें - दशवैकालिक सूत्र अ. २, की गाथा नं. १५-१६ का विवेचन (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा प्रकाशित) पृ. ५४-५६
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