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कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मों का आनव और संवर (६)
और फिर यह सोचते हैं कि मन को निगृहीत (संवृत) करना हमारे वश की बात नहीं है। यह पहला कारण है, इच्छाशक्ति की दुर्बलता का ।
दूसरा कारण यह भी है कि अधिकांश व्यक्ति यह धारणा और निश्चय नहीं बना पाते कि मनःसंवर से कितने लाभ हैं, और उसमें वास्तविक बाधा कौन-सी है ? जिजीविषा के साथ विजिगीषा की वृत्ति प्रबल हो तो मनोनिग्रह में असफल होने पर भी वैं अपने को अनुचित रूप से कोसते नहीं, लगातार असफलता को भी गम्भीर रूप से नहीं लेते, न ही असफलताओं से हतोत्साहित एवं हीनभावनाग्रस्त होते हैं।
अतः असफलता को हमें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देने वाली मान कर अधिकाधिक लगन, धैर्य, अध्यवसाय और बुद्धिमत्ता पूर्वक मनः संवर के अभ्यास में लग जाना चाहिए। अभ्यास ही मनुष्य को परिपूर्ण बनाता है।' आत्मविश्वास की कमी भी दृढ़ इच्छाशक्ति में बाधक
मनोनिग्रह में सफलता पाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ-साथ आत्मविश्वास. भी होना आवश्यक है। आत्मविश्वास के बिना मनःसंवर की साधना करते समय जहाँ भी विघ्न-बाधा आई, कोई रुकावट आई, या किसी ने थोड़ा-सा बहकाया कि झट साधक विचलित हो जाएगा। साधना से भ्रष्ट और प्रमत्त हो जाएगा। आगे चलकर वह मनः संवर की साधना को छोड़ भी सकता है।
आत्मविश्वासहीन मानव बार-बार शंका, बहम, दुर्बलता, गतानुगतिकता और स्थिति स्थापकता से ग्रस्त हो जाएगा । उसकी मन संवर की सिद्धि के विषय में इच्छाशक्ति की नींव हिल जाएंगी और वह मन को वह पुनः पुनः कर्म आस्रवों के चंगुल में फंसा लेगा। आत्मविश्वास के अभाव में उसका मन किसी भी संकल्प, नियम या प्रतिज्ञा से आवद्ध नहीं हो सकेगा। वह केवल ऊँची-ऊँची फिलासाफी बघारेगा, आदर्श की बातें करेगा, किन्तु व्यावहारिक धरातल पर उसका मन कच्चा और डाँवाडोल होता रहेगा, वह मनसूबे बाँधेगा, किन्तु सत्कार्यों को क्रियान्वित करने में अथवा मन को निगृहीत (संवृत) . करने में उसके कदम लड़खड़ा जाएंगे।.
स्व-मन से ही मन को निगृहीत करना चाहिए
मनः संवर के साधक को यह बात हृदयांकित कर लेनी चाहिए कि मन को मन से ही निगृहीत - संवृत किया जा सकता है। मनं न तो कृत्रिम उपायों द्वारा वश में किया जा सकता है, और न किसी देव-देवी, शक्ति या भगवान् के वरदान या सहारे से वश में किया जा सकता है। उसके लिए तो धैर्य, अध्यवसाय, परिश्रम (पुरुषार्थ) और बुद्धिमत्ता
१. (क) मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण पृ. १0(ख) Practice makes a man perfect.
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