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८५२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
ओर जाएगा। मन धोबी के यहाँ (धुलने के लिए दिया हुआ) कपड़ा है। वहाँ (धोबी के यहाँ) से लाकर उसे लाल रंग में रंगोगे तो लाल हो जाएगा और आसमानी रंग में रंगोगे तो आसमानी। जिस रंग से रंगोगे वही रंग उस पर चढ़ जाएगा।" प्रबल इच्छाशक्ति के बिना मनोनिग्रह का संकल्प शिथिल हो जाएगा
मनःसंवर के लिए हम में इच्छाशक्ति नहीं है, यह कहना असंगत होगा। प्रत्येक व्यक्ति में आन्तरिक संघर्ष तो होता ही है। आन्तरिक संघर्ष मन्द हो तो इच्छाशक्ति प्रबल नहीं होती। मन को वश में करने के लिए इच्छाशक्ति को प्रबल बनाना आवश्यक है। और जब तक इन्द्रियविषय-सुखों की लालसा को मुख्यता दी जाती है, मन को इन्द्रिय सुखों की खोज में तथा उनके भोग में लगाते रहते हैं, तब तक मनोनिग्रहरूप मनःसंवर का संकल्प प्रबल नहीं हो सकता। इन्द्रियविषयसुखों की लालसा नासूर के समान है, जो मनोनिग्रह के संकल्प को चूसकर शिथिल कर देती है। मनःसंवर में कामेच्छा और भोगेच्छा प्रबल बाधक ..
आचारांगसूत्र में मनःसंवर में कामेच्छा और भोगेछा को बाधक बताते हुए कहा गया है।- हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता (मनमानी करने) का त्याग कर दे। उस भोगेच्छारूप भल्य (कांटे) का सृजन तूने ही किया है। किन्तु मोह से आवृत बुद्धि बाला मनुष्य इस सत्य-तथ्य को समझ नहीं पाता, इसीलिए वह (मनःसंवर से दूर रहकर) संसार में दुःख पाता है। जिस भोग सामग्री को सुखरूप समझता है, वही बाद में दुःखलप हो जाती है। अतः जब तक भोगों में सुख की लालसा नहीं छोड़ी जाएगी, तब तक मनोनिग्रह होना अशक्य है।"
सुखभोग की स्पृहा का त्याग कर देने के पश्चात् भी मन को नियंत्रित (संवृत) करना आसान नहीं है, क्योंकि वह पुरानी यादों को उठा कर व्यक्ति को परेशान करता रहेगा। सुखभोग की स्पृहा का त्याग जितना प्रबल और तीव्र होगा, उसी परिमाण में मनोनिग्रह का संकल्प सुदृढ़ होगा।
' तात्पर्य यह है कि जहाँ तक सुखभोग की लालसा बनी हुई है, तब तक कर्मानवनिरोधलप मनःसंवर सच्चे मन में नहीं होगा, चाहे ऊपर से घोषणा कर दे, प्रतिज्ञा भी कर ले। _ आचारांग में कहा गया है-"इन्द्रियविषयों में, रूपों और शब्दों में मूर्छित होना
आसक्ति है, वही संसार है, कर्मानव का कारण है।" १. (म. कृत) रामकृष्ण वचनामृत, भाग २, (१९७०) पृष्ठ ३२१ (श्री रामकृष्ण आश्रम, नागपुर) २. मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावशि ग्रहण पृ. ५-६ ३. आसंच छन्द च निगिच धीरे ! तुमचैव सल्लमाइट्टाजेणसिया,तेण णो सिया, इणमेव णावबुज्झन्ति जे जणा मोहपाउडा।
__ -आचा. १/२/४ सू. ८३ विवेचन ४. मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण, पृ. ६
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