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७६६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) नहीं होती। एक वैदिक विद्वान् ने लिखा है-'वचनपातः वीर्यपाताद् गरीयान्' वचनपात् वीर्यपात् होने से भी बढ़कर है। बोलने से तनाव पैदा होता है। शक्ति का अत्यधिक व्यय होता है। न बोलने से वह शक्ति बच जाती है। अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प का निरोध ही वाक्संवर
वाक्संवर की पूर्णता केवल बहिर्जल्प तक ही सीमित नहीं है। अन्तर्जल्प भी आवश्यक है। जब बाहर और भीतर दोनों ओर का बोलना बन्द हो जाता है। वाकसंवर का अर्थ है-वाणी के प्रयोग का सर्वथा निरोध करना। मौन का अर्थ केवल वाणी से न बोलना इतना ही नहीं है अपितु मन में भी विचार, वर्ण या विकल्प का प्रयोग न करना, संकेत करना भी अव्यक्त शब्दों का उच्चारण ही है।
श्रमण भगवान् महावीर से एक जिज्ञासु ने पूछा-भंते! वाक्गुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है ? उत्तर में उन्होंने कहा-वाकगुप्ति से जीव को निर्विचारिता निर्विकारिता प्राप्त होती है। निर्विकार या निर्विचार जीव वाणी संवर से युक्त होकर अध्यात्म योग साधना में विचरण करता है। . वचनगुप्ति का निर्विचारिता से गहरा सम्बन्ध है। उसे कुछ चिन्तकों ने काष्ठमौन कहा है। प्रस्तुत मौन में व्यक्ति न आँखें मटकाता है, न हाथ आदि से संकेत करता है और न किसी प्रकार की मुद्रा आदि बनाकर भावों का प्रदर्शन करता है। यदि किसी ने मौन किया है पर मन में विकल्पों के ताने-बाने Dथ रहा है। चित्त में चिन्तन का प्रवाह अजम्न रूप से प्रवाहित है। बुद्धि के चूल्हे पर विविध प्रकार की योजनाओं की खिचड़ी पक रही है तो वस्तुतः वह मौन नहीं है। वह तो मौन का नाटक है। निर्विचार मौन से जितना लाभ होता है उतना लाभ विचारयुक्त मौन से नहीं होता। .
यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है-व्यक्ति जितना मन से बोलता है उतना वचन से नहीं। वक्ता के हाव-भाव आकृति को निहारकर श्रोता उसके भाव को पकड़ लेता है। यही कारण है कि नीतिकार ने इस सत्य को इस प्रकार उजागर किया है-आकार, इंगित, गति, चेष्टा, भाषण, नेत्र और मुँह के विकारों से मानव के अन्तर्मन को परिलक्षित किया जाता है। जो बालक बोल नहीं पाता उसके हाव-भावों और चेष्टाओं को निहारकर माता समझ जाती है कि बालक क्या कहना चाहता है। वह किस वस्तु की माँग कर रहा है।' ___ जब मन अत्यधिक सशक्त और एकाग्र हो जाता है तब मुँह से कहने की आवश्यकता नहीं होती। भाषा के आलम्बन की आवश्यकता जब होती है कि मन की शक्ति अल्प हो। जैन सिद्धान्त के अनुसार देवों के भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति ये दोनों
१. आकारैरिंगितर्गत्या चेष्टया भाषणेन च।
नेत्र-वक्त्र विकारैश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः॥
-पंचतंत्र
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