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मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८४३
अभ्यास और वैराग्य दमन के समानार्थक शब्द नहीं है। दमन ही इष्ट होता तो क्रमिक अभ्यास की बात नहीं की जाती। अभ्यास तो वासनाओं के विलय, परिष्कार या उदात्तीकरण के लिए है। इसीलिए गीता में कहा गया है-सभी प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलते हैं, वे निग्रह कैसे कर सकते हैं ? आगे गीता में यह भी बताया गया है कि “इन्द्रियों और मन को अपने-अपने विषयों का आहार न देने से बाह्यरूप से तो विषयों से निवृत्ति हो जाती है, किन्तु उनका रस बना रहता है यानी उनके उपभोग संस्कार बने रहते हैं, वे जड़ मूल से नष्ट नहीं होते। वह रस 'पर' को देखकर या आगे के क्षायिक मार्ग को अपनाने पर या परमात्मतत्त्व-वीतरागतत्त्व के दर्शन करने पर नष्ट होता है।" इससे स्पष्ट है कि दमन या उपशम का मार्ग गीता को भी स्वीकार्य नहीं है।' बौद्ध परम्परा में भी दमन की प्रक्रिया चित्त संक्षेप हेतु एवं निषिद्ध
मध्यममार्गी बौद्ध परम्परा भी मन की प्रक्रिया को चित्त क्षोभ की प्रक्रिया मानती है। वहाँ कहा गया है-चित्त संक्षोभ या मानसिक द्वन्द्व से कभी मुक्ति नहीं होती। जैन परम्परा में मनोनिग्रह का अर्थ : मन का उदात्तीकरण
जैन दर्शन में बताया गया है कि दमन में या उपशम मार्ग के चित्त में उठी हुई वासना या इच्छा को दबाया जाता है, जबकि क्षय प्रक्रिया में वासना या कामना का उठना ही क्रमशः कम करके समाप्त कर दिया जाता है। क्षय में इच्छाओं का द्वन्द्व या संघर्ष नहीं होता।
___ अतः आगमों या योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में जहाँ भी मनोनिग्रह या मनोनिरोध या मनोगुप्ति के द्वारा मनःसंवर का मार्ग बताया गया है, वहाँ भी निरोध या निग्रह का अर्थ औपशमिक दृष्टि से न करके क्षायिक दृष्टि से करना उचित बताया है। क्षायिक दृष्टि से मनोनिरोध या मनोनिग्रह का अर्थ मन का उदात्तीकरण (Sublimation of mind) या शुद्धीकरण होता है। .. जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में केशी-श्रमण के द्वारा गणधर गौतम से मनोनिग्रह के विषय में पूछे जाने पर उन्होंने उत्तर दिया है-सचमुच, यह मन साहसिक भयंकर और दुष्ट अश्व की तरह चारों ओर भाग-दौड़ करता है, किन्तु मैं इसे जातिमान अश्व के
१. (क) सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ?
-गीता ३/३३ (ख) विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
-गीता २/५९ (ग) जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से
भावांश ग्रहण, पृ. ४९२ २. (क) प्राज्ञोपाय विनिश्चय ५/४0 । (ख) वही (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश ग्रहण, पृ. ४९१ .
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