________________
मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८४७ इससे वह बंदर बहुत अस्थिर हो गया। तत्पश्चात् उसके दुःख की मात्रा को कम करने के लिए एक दानव (भूत) उस पर सवार हो गया। यह सब मिला कर सोचो, बन्दर कितना चंचल हो गया होगा। यह भाषा (वाणी) द्वारा व्यक्त करना असम्भव है।
बस, मनुष्य का मन भी उस वानर के सदृश है। मन तो स्वभावतः ही सतत चंचल है, फिर वह वासना रूप मदिरा से मत्त है, इससे उसकी अस्थिरता बढ़ गई है। जब वासना आकर मन पर अधिकार जमा लेती है, तब सुखी लोगों को देखकर ईर्ष्या रूप बिच्छू उसे डंक मारता रहता है। उसके भी ऊपर जब अहंकार रूप दानव (भूत) उसके भीतर प्रवेश करता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। ऐसी तो हमारे मन की अवस्था है ! सोचो तो, इसका संयम (संवर) करना कितना कठिन है ?'
अतः मन की चंचलता को रोकने (आनव निरोधरूप संवर करने) के लिए हमें उसके कारणों को जानना आवश्यक है। साथ ही सतर्क रहकर मन को क्रमशः विधिपूर्वक वंश में करना पड़ेगा। मनःसंवर उच्च साधक के लिए भी कठिन, यदि वह सतर्क नहीं है तो
यह सत्य है कि मनोनिग्रह रूप मनःसंवर अर्जुन जैसे वीर्यवान् वीर पुरुषों के लिए भी सदा से अत्यन्त कठिन कार्य रहा है। फिर भी कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने उसे असम्भव नहीं बताया है। फिर मनःसंवर के साधक को सतर्क और अप्रमत्त तो रहना ही पड़ेगा, इसके लिए। ऐसा न होने पर अच्छे से अच्छे अभ्यासशील साधक के लिए मनः संवर आसान बात नहीं है; इसके कारणों का दिग्दर्शन कराते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं"हे कौन्तेय ! अभ्यासशील बुद्धिमान पुरुष के मन को ये उद्दण्ड इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर (खींच) लेती हैं।" जैसे-वायु जल में नौका का हरण (आकर्षण) कर लेती है, वैसे ही इन्द्रियों के पीछे-पीछे चलने वाला मन पुरुष (साधक) के विवेक का हरण कर लेता
मनःसंवर में मन की क्रमशःचार या पाँच अवस्थाओं से आगे बढ़ना होगा . . . सतर्क रहने पर भी मनःसंवर अत्यन्त कठिन कार्य है। मनःसंवर की सर्वोच्च भूमिका प्राप्त करने के लिए साधक को क्रमशः विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना होगा। ऐसा किये बिना एकदम उच्च भूमिका पर छलांग लगाना सम्भव न होगा।
१. देखें-"विवेकानन्द साहित्य" खण्ड १ (१९६३) में राजयोग का विवरण, पृ. ८६ २.. मन की चंचलता के कारण हैं-पूर्व निबन्ध में उल्लिखित प्राण और वृत्तियाँ। ३. यततो ह्यपि कौन्तेय ! पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः || इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥
-गीता अ. २, श्लोक ६०, ६७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org