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मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८४९
चौथी लोकोत्तर चित्त की अवस्था है, जिसमें वासना, संस्कार, राग द्वेष-मोह आदि का प्रहाण (नाश) हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करते ही अहंत पद तथा निर्वाण की प्राप्ति अवश्यमेव हो जाती है।
योगदर्शनसम्मत क्षिप्त और मूढ़ अवस्था जैन परम्परा की विक्षिप्त और बौद्ध परम्परा की कामावचर अवस्था के समान हैं। शेष तीनों अवस्थाएँ तीनों परम्पराओं में लगभग समान हैं। मनःसंवर की सिद्धि के लिए जीवनभर अभ्यास और त्याग आवश्यक
___ निष्कर्ष यह है कि मनःसंवर के लिए मन को शनैः शनैः धैर्यपूर्वक दीर्घकाल तक निरन्तर सत्कार-श्रद्धापूर्वक साधना होगा। इच्छाशक्ति को सुदृढ़ एवं बलवती बनाना होगा। मनःसंवर कोई सनक या बच्चों का खेल नहीं है कि आवेश में आकर एक दिन अभ्यास कर लिया और दूसरे दिन उसे छोड़ दिया। यह तो जीवन भर का कार्य है। इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए जो भी त्याग, तप, समिति-गुप्ति पालन, व्रतनियमाचरण आदि करना पड़े, अर्थात् जो भी मूल्य चुकाना पड़े, वह श्रेयस्कर और उचित है।
समझ लो कि परम मनःसंवर की सिद्धि एवं उससे मुक्ति या परमात्मपद प्राप्ति के लक्ष्य जैसा ही यह महान् है। यदि इसे लक्ष्य बनाकर मनःसंवर की साधना की जाए तो सफलता निश्चित है, महापुरुषों द्वारा अनुभूत है और उसकी सिद्धि के लिए जो भी मूल्य चुकाना पड़े वह अल्प है, ऐसा समझना चाहिए।' लक्ष्य के प्रति एकाग्र वीर मनःसंवर का निष्ठावान् साधक - जैसा कि आचारांगसूत्र में पूर्ण मनःसंवर के प्रति जागरूक और अप्रमत्त साधक के लिए कहा गया है-"यह शब्द और रूप आदि के प्रति उपेक्षा (राग-द्वेष-विरति) करता है। यह संवर के प्रति निष्ठावान् तथा सरलतात्मा व विवेकी होता है। इसलिए मनःसंवर (संयम) को कष्टकारक न समझ कर आत्मविकास के लिए अनिवार्य समझता है। वह मृत्यु के प्रति सदा सावधान (आशंकित-सतर्क) रहता है कि कहीं अचानक मृत्यु आकर मुझे भयभीत न कर दे। ऐसा साधक मृत्यु (के भय) से या दुःख से मुक्त हो जाता है; क्योंकि आत्मा के अमरत्व में उसकी दृढ़ आस्था होती है।"
१. (क) भारतीय दर्शन (दत्ता) पृ. १९०
(ख) देखें, पिछले निबन्ध में मन की पाँच अवस्थाओं आदि का वर्णन। (ग) योगशास्त्र प्र. १२, श्लोक २ (घ) अभिधम्मत्य संगहो पृ.१
(ङ) जैन बौद्ध गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ. ४९६ २. विवेकानन्द साहित्य, खण्ड ४, पृष्ठ ९६ (अद्वैत आश्रम, कलकत्ता)
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