________________
८४८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६)
इसके लिए योगदर्शन में चित्त की जिन पाँच अवस्थाओं का वर्णन है उसका तथा पाँचों अवस्थाओं (क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध) के विभिन्न लक्षणों और गुणों का उल्लेख भी हम पिछले निबन्ध में कर आए हैं।
जैनाचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाओं का वर्णन किया है। वे इस प्रकार हैं-(१) विक्षिप्त मन, (२) यातायात मन, (३) श्लिष्ट मन और (४) सुलीन मन।
विक्षिप्त मन अत्यन्त चंचल होता है, वह इधर-उधर भटकता रहता है। इस अवस्था में संकल्प-विकल्पों की भागदौड़ रहती है। यह मन की अस्थिर अवस्था है। इसका आलम्बन मुख्यतया बाह्य विषय होता है।
यातायात मन कथंचित् अन्तर्मुखी होता है, कथंचित् बहिर्मुखी। मन अपने पूर्वाभ्यासवश इस भूमिका में बाह्य विषयों की ओर दौड़ता रहता है, यत्किंचित् प्रयत्न से उसे रोक कर स्थिर कर लिया जाता है। लेकिन थोड़ी देर स्थिर रहकर फिर बाह्य विषयों के विकल्पों में घुड़दौड़ लगाता है। स्थिर होता है, तब साधक अनाकुलता और अस्थिर हो जाने पर आकुलता का अनुभव करता है, इसलिए इसे यातायात मन कहा है। यह योगाभ्यास द्वारा मनःसंवर की प्रारम्भिक अवस्था है।
इसके पश्चात् तीसरी स्थिरता की अवस्था आती है-श्लिष्ट्र मन की। इस भूमिका में मन की स्थिरता का आधार होता है-प्रशस्त विषय। इसमें स्थिरता के साथ आनन्द बढ़ता जाता है।
इसके पश्चात् अन्तिम चतुर्थ अवस्था है-सुलीन मन की, जिसमें वृत्तियों का तथा संकल्प-विकल्पों का क्षय या लय हो जाता है। इसे निरुद्धावस्था भी कह सकते हैं। वह परम मनःसंवर की अवस्था है।
बौद्ध परम्परा में भी चित्त की चार अवस्थाएँ ‘अमिधम्मत्थ संगहो' में बताई गई हैं-(१) कामावचर, (२) रूपावचर, (३) अरूपावचर एवं (४) लोकोत्तर।
कामावचर में कामनाओं, वासनाओं तथा वितर्को, विचारों की प्रबलता रहती है। मन सांसारिक विषयभोगों में दौड़ता रहता है।
रूपावचर अवस्था में वितर्क-विचार होते हुए भी मन की एकाग्रता एवं स्थिरता के लिए प्रयत्न होता है। इस अवस्था में चित्त का आलम्बन बाह्य स्थूल विषय होते हैं। यह योगाभ्यास के लिए प्रयत्नशील मन की पहली अवस्था है।
तीसरी अस्वपावचर चित्त की भूमिका है, इसमें आलम्बन बाह्य विषय नहीं, किन्तु अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिंचनत्व जैसे अतीव सूक्ष्म विषय होते हैं। इस अवस्था में चित्तवृत्तियों में स्थिरता एवं एकाग्रता होती है, परन्तु वह-निर्विषय नहीं होती।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org