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मनः संवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८४५
विषयों में प्रवृत्त हो रहे मन को शुद्ध के चिन्तन में लगा देना मनः संवर है
मन विषयों में प्रवृत्त हो रहा हो, उस समय उसे शुभाशुभ विकल्पों से हटाकर 'शुद्ध' के चिन्तन में लगा देना मन:संवर है। मनः संवर तब तक पूर्णतः सिद्ध नहीं होगा, जब तक वह शुभाशुभ संकल्प-विकल्प या चिन्तन करेगा। क्योंकि शुभाशुभ संकल्पविकल्प में प्रवृत्त मन व्याकुल और अशान्त होगा, उसकी चंचलता दूर नहीं होगी; न ही उसमें स्थिरता आ पाएगी।
आचारांगसूत्र में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है कि पाँचों इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होने से बलात् रोकना शक्य नहीं है किन्तु साधक उन विषयों के प्रति मन में राग-द्वेष न आने दे।'
पंचेन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्त होते हुए मन में औदासीन्य भाव लाना मन:संबर है
योगशास्त्र में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-मनोहररूप का प्रेक्षण करता हुआ भी, मनोज्ञ और मधुर प्रिय वाणी का श्रवण करता हुआ भी, सुगन्धित पदार्थों को सूंघता हुआ भी, मनोज्ञ रस को चखता हुआ भी, मृदु पदार्थों का स्पर्श करता हुआ भी तथा मन की प्रवृत्तियों को न रोकता हुआ भी उदासीनभाव से परिपूर्ण, पूर्ण समभाव से भावितात्मा, तथा आसक्ति परित्यागी साधक बहिरंग और अन्तरंग चिन्ताओं और प्रवृत्तियों से रहित होकर मानसिक एकाग्रता प्राप्त करके अत्यन्त उन्मनीभाव अर्थात् परम उदासीनता को प्राप्त कर लेता है।
मन का इस प्रकार औदासीन्य भाव ही मनः संवर है। फिर इस प्रकार के उदासीनभाव में डूबा हुआ, सभी प्रकार की प्रवृत्तियों को प्रेरित न करता हुआ, परमानन्द दशा के भावों से भावित रहने वाला योगी मन को किसी भी जगह संलग्न नहीं करता। २.
आत्मा मन को, मन इन्द्रियों को प्रेरित न करे तभी मनोविलयरूप मनः संवर
इस प्रकार मन जब आत्मा द्वारा उपेक्षित हो जाता है, तब वह इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा नहीं करता। और तब इन्द्रियाँ स्व-स्व-विषयों में प्रवृत्त होना छोड़ · देती हैं।
संक्षेप में, जब आत्मा मन को और मन इन्द्रियों को प्रेरित नहीं करता, तब उभयतोभ्रष्ट एवं उपेक्षित मन स्वतः विलीन हो जाता है अर्थात् - मन उत्पन्न नहीं होता, यानी मन के चिन्ता, स्मृति, कल्पना आदि सभी व्यापार नष्ट हो जाते हैं। जब मन प्रेरक
१. आचारांग सूत्र श्रु. २, अ. ३, उ. १५, सू. १३१ से १३५
२. योगशास्त्र, प्रकाश १२, श्लोक २३ से २५
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