________________
७९२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
अश्रेय का अपने आप में कोई बोध नहीं होता । अतः इन्द्रियों के सहारे जो भी पदार्थों का ज्ञान किया जाता है, वह प्रामाणिक ही है, यथार्थ ही है, यह नहीं कहा जा सकता ।
उदाहरणार्थ- आँखों की उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता, उनकी प्रामाणिकता भी मानी जाती है, प्रत्यक्ष दर्शन की बात यथार्थ मानी जाती है । परन्तु इतने भर से यह नहीं कहा जा सकता कि आँखें, जो कुछ, या जैसा कुछ देखती हैं, वह सही है। मृगमरीचिका, इन्द्रधनुष आदि आँखों से दिखाई देने पर भी प्रायः भ्रम ही सिद्ध होते हैं।
टी. वी., सिनेमा के पर्दे पर दिखाई जाने वाली वस्तुएँ वास्तव में अचल होती हैं, पर वे दीखती हैं चलती-फिरती, क्योंकि जिस तेजी से फिल्मों की रील घूमती है, उतनी तेजी से नेत्रों के ज्ञानतन्तु मस्तिष्क तक सही सूचना पहुँचा सकने में असमर्थ होते हैं। फलतः फिल्में (चलचित्र) अचल होती हुई भी चलती-फिरती दिखाई देती हैं।
जब सामान्य घटनाक्रमों के सम्बन्ध में यह बात है तो आत्मा और आत्मा से सम्बद्ध आनव, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष आदि तत्त्वों का, परमात्मा का, तथा संसार का, एवं जीवन का तत्त्व एवं दर्शन इन चर्म चक्षुओं से कैसे ज्ञात हो सकता है, वह भावचक्षुओं (ज्ञाननेत्रों) से ही सम्भव है।
यही कारण है कि संसार के विभिन्न प्राणी और मानव प्राणी भी, अपनी इन्द्रिय शक्ति के सहारे अपने सम्पर्क में आने वाले पदार्थों और प्राणियों के बारे में विभिन्न मत निर्धारित करते हैं। कई बार तो वे एक दूसरे की अनुभूतियों में तनिक भी समानता नहीं होती ।"
ऊँट नीम की पत्तियों को स्वादपूर्वक खाता है, पर मनुष्य को वे कड़वी लगती हैं। इसलिए इन्द्रियों की रचना के आधार पर वस्तुओं की तथा जीवों की उपस्थिति की विभिन्न प्रतिक्रियाएँ होती हैं, इसमें मस्तिष्क की बनावट और प्राणियों की वंशपरम्परागत अनुभूतियाँ भी बहुत बड़ा कारण हैं। प्राणी किस वस्तु को किस रूप में समझे और उससे क्या अनुभव ले, यह पदार्थ पर नहीं, प्राणियों की अपनी संरचना पर निर्भर है। दृष्ट पदार्थों के बोध के साथ द्रष्टा की दृष्टि और भावना जुड़ती है
मोटे तौर से तो आँख के सहारे से पदार्थों का स्थूल स्वरूप तथा घटनाओं का विवरण ज्ञात होता है, परन्तु गहराई में उतरने पर पता चलता है कि दृष्ट पदार्थों के बोध के साथ द्रष्टा की भावनाएँ - विचारधारा भी जुड़ती हैं, उसी के अनुसार बोध होता है। एक युवती को देखकर कामुक की, बालक की तथा संत की दृष्टि अलग-अलग होती है। किसी का धन वैभव देखकर चोर की और हितैषी की दृष्टि में अन्तर होता है। एक की दृष्टि में यह संसार भवबन्धन है, दूसरे की दृष्टि में है-माया- मिध्या, और तीसरे की दृष्टि
अखण्ड ज्योति, मई १९७८ पृ. १२ से भावांश ग्रहण
9.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org