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मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८३९
अमनस्क प्राणियों में भी भावमन के अस्तित्व के कारण कर्मानव
यहाँ एक प्रश्न होता है कि जैनसिद्धान्त के अनुसार जो अमनस्क ( मन रहित ) प्राणी हैं, क्या उन्हें मनोविलययुक्त या मनःशून्यता से युक्त कहा जा सकता है ? मन के न होने की स्थिति में क्या उनके मन से होने वाले कर्मों का आनव रुक जाता है ? या मनःसंवर स्वतः ही हो जाता है ?
जैनदर्शन ने इसका समाधान इस प्रकार दिया है कि संसार में जो भी बद्ध अमनस्क प्राणी हैं, उनमें चाहे द्रव्यमन न हो, परन्तु भावमन का अस्तित्व तो है ही । भावमन संसार के सभी प्राणियों में होता ही है। ऐसी स्थिति में भावमन के द्वारा मिथ्यात्व, अज्ञान या अविद्या आदि के द्वारा कर्मों का आस्रव और कर्मबन्ध होता रहता है।
श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार मन को समग्र शरीर व्यापी माना जाए तो उनमें द्रव्यमन का अस्तित्व भी माना जा सकता है, किन्तु उनका वह द्रव्यमन या भावमन, केवल ओघसंज्ञारूप है, क्योंकि उनमें चेतना का, विवेकबुद्धि का विकास अत्यन्त नगण्य है, स्वल्प है। कहना चाहिए कि उनका मन विवेक शक्ति (rational mind) से रहित है। इसी अपेक्षा से उन्हें अमनस्क कहा जाता है।
जैनदर्शन में प्राणियों की जो समनस्क और अमनस्क संज्ञा है, वह विवेक क्षमता के सद्भाव और अभाव को लोकर निर्धारित की गई है । इस दृष्टि से अमनस्क प्राणी विवेकशक्ति विहीन होने के कारण वैचारिक संकल्प-विकल्प से रहित होते हैं, फिर भी वे भावमन के कारण कर्म संस्कारों से युक्त होते हैं। इसलिए नये कर्मों का आनव भी उनके होता है, बन्ध भी। यद्यपि वह बन्ध तीव्र नहीं होता साथ ही पूर्वकृत कर्मों का फलभोग भी चलता रहता है।"
अतः मनोविलय के व्यावहारिक दृष्टिपरक अर्थ के अनुसार मन है, वह बहुत बार, बार-बार उत्पन्न होता है। इसीलिए आचारांगसूत्र में कहा गया है - " अणेगचित्ते खलु 'अयं पुरिसे।" वह जीव अनेक चित्त (मन) वाला है। अतएव मन है, इसीलिए तो हम . उसके न होने की (अमन की बात सोचते हैं।
मन अकेला होता तो कोई बात नहीं थी । मन के साथ अनेक रागद्वेषादि विकारों की जटिल समस्याएँ होती हैं। मन की क्रिया जिस प्रेरक यंत्र-तंत्र द्वारा होती है, मन जिसके द्वारा प्रेरित-संचालित होता है, वे बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो अवांछनीय हैं, अनाचरणीय हैं, हमें आनव और बन्धन में डालने वाली हैं। इसलिए मन के न होने की बात हम सोचते हैं। मन को उत्पन्न करने वाला यंत्र या तंत्र जब निष्क्रिय हो जाए तभी हम कह सकते हैं कि मन उत्पन्न नहीं होता।
१. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, भाग १ (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश ग्रहण पृ. ४८६
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