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मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य ८०७ मन : बन्ध और मोक्ष का कारण : कैसे?
इस प्रकार मन के द्वारा आत्मा और जड़ (कर्म) तत्त्व के बीच अपरोक्ष सम्बन्ध मान कर जैनदर्शन बन्ध (कर्मबन्ध) की धारणा को सिद्ध करता है। जब तक मन माध्यम रहता है, तभी तक जड़ और चेतन में परस्पर प्रभावकता रहती है और कर्मबन्ध का सिलसिला जारी रहता है। मोक्ष (सर्वथा कर्ममुक्ति) के लिए मन के इन उभयपक्षों को पृथक्-पृथक् करना होता है, इसलिए उस दशा में मन की उपर्युक्त शक्ति समाप्त होने लगती है, और अन्त में मन का विलय हो जाता है, और मन का विलय होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है। मोक्षदशा में उभयात्मक मन का अभाव हो जाता है, और तब कर्मबन्ध की सम्भावना ही नहीं रहती।' इसी दृष्टि से कहा गया है-“मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण है।" . उपनिषदों की दृष्टि में मन : बन्ध और मोक्ष का मूल कारण ___ भारतीय तत्त्व-चिन्तकों ने केवल मोक्ष प्राप्ति का ही उपदेश नहीं दिया, अपितु उन्होंने मुक्ति-प्राप्ति में बाधक बन्ध के कारणों के साथ-साथ उसके साधक कारणों का भी निरूपण किया है। यही कारण है, उपनिषत्-कालीन ऋषियों ने अपने अनुभवों के प्रकाश में संक्षेप में जीव के बन्धन और मुक्ति के मूल कारण का उल्लेख करते हुए कहा-"मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है।" जैन दृष्टि से मन : आनव और वन्ध का, तथा संवर-निर्जरा और मोक्ष का कारण
जैनदर्शन में, मन को एक ओर आस्रव और बन्ध का कारण बताया है, तो दूसरी ओर, उसे संवर और निर्जरा का और अन्त में मोक्ष का भी कारण बताया है। मन सातवीं नरक में भी ले जा सकता है और अनुत्तर विमान के सर्वोच्च सर्वार्थसिद्ध देवलोक (स्वर्ग) में भी पहुँचा. सकता है, तथा मन की शक्तियों का आध्यात्मिक विकास की दिशा में उपयोग किया जाए तो वह मोक्ष का द्वार भी खोल सकता है; उससे पहले वह वीतरागता की भूमिका पर पहुंचा सकता है। समस्त शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणामों का आध कारण : मन ... संक्षेप में कहें तो, कर्मों के आसव और बन्ध का, तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष का मूल कारण-आध निमित्त मन है। समस्त शुभ, अशुभ अथवा शुद्ध भावों-परिणामों का मूलाधार, आद्य प्रवेशद्वार मन है। मन में ही सर्वप्रथम अच्छी-बुरी वृत्तियों, भावनाओं, वासनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, प्रशस्त-अप्रशस्त रागात्मक परिणतियों, १. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश - ग्रहण पृ. ११२ २. "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।"
.-छान्दोग्योपनिषद्
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