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८०८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
द्वेषात्मक कल्पनाओं एवं संकल्प-विकल्पों का जन्म होता है। और मन में कर्मों के आगमन (आसव) को रोकने (संवर) के और पूर्वकृत कर्मों के आंशिक क्षय (निर्जरा) के शुद्ध परिणामों-भावों की उत्पत्ति होती है। मन ही सद्-असद्-विवेक का, नैतिकाअनैतिक कृत्य का, पुण्य-पाप और धर्म का, हित-अहित का, कल्याण-अकल्याण का, धर्म-अधर्म का, कर्तव्य-अकर्तव्य का तथा शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणामों (भावों) का निर्णायक-निश्चायक है। वस्तुतः मन संकल्प-विकल्पात्मक भी है और निश्चयात्मक, शुद्ध निर्णायक भी है। . मन का निवास स्थान कहाँ-कहाँ और क्यों ? . जैन दार्शनिकों के समक्ष जब मन के निवास-स्थान का प्रश्न आया तो पं. सुखलाल जी ने जैनसिद्धान्त की दृष्टि से इसका समाधान करते हुए कहा-द्रव्यमन का निवास-स्थान स्थूल शरीर है; और भावमन का निवास स्थान भी समग्र शरीर ही सिद्ध होता है। क्योंकि भावमन का स्थान आत्मा है और आत्म-प्रदेश सारे शरीर में व्याप्त हैं। इसलिए श्वेताम्बर-परम्परानुसार उभय-मन समग्र शरीरव्यापी सिद्ध होते हैं। दिगम्बरपरम्परा के गोम्मटसार ग्रन्थ में मन का निवास स्थान हृदय बताया है। बौद्धपरम्परा में भी इसी प्रकार माना गया है। - युवाचार्य महाप्रज्ञ का मन्तव्य है कि मन समग्र शरीर में रहता है, और शरीर के अमुक हिस्से में भी। जो भी ज्ञान प्रकट होता है, उसका मुख्य केन्द्र है-मस्तिष्क। हमारा ज्ञान, ज्ञानवाही नाड़ियों द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचता है; इस दृष्टि से मन का मुख्य केन्द्र या निवास-स्थान मस्तिष्क है। किन्तु उसकी क्रिया ज्ञानवाही तन्तुओं के जरिये समग्र शरीर में होती है; इस अपेक्षा से मन को सारे शरीर में व्याप्त कहा जा सकता है।' वैदिक परम्परानुसार मन का स्वरूप
वैदिक ऋषियों एवं मनीषियों ने मन को सूक्ष्म जड़ परमाणुओं से बना हुआ पारदर्शी यंत्र बताया है। उनकी दृष्टि में मन आत्मा के हाथों एक अनोखा यंत्र है, जिसके माध्यम से आत्मा बाह्यजगत का अनुभव और ग्रहण करता है। वह शुद्ध चेतना की आभारूप है। इस कारण समस्त वस्तुओं को अभिव्यक्त करता है। यह आत्मा के सर्वाधिक निकट है। इसलिए वह इस बोधस्वरूप (ज्ञानमय) है। वह आत्मा का अन्तःकरण यानी भीतरी यंत्र है। वह प्रकाश का उत्स नहीं है। मन में अपने आप में कोई
(क) दर्शन और चिन्तन, भाग १ (पं. सुखलाल जी) से पृ. १४0 (ख) गोम्मटसार (जीव काण्ड) (ग) जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से भावांश ग्रहण पृ. ४८० (घ) महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. ११५-११६
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