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मनः संवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ
मनःसंवर क्या है, क्या नहीं ? : एक विश्लेषण
मनः संवर या मनोतिरोध की महत्ता, विशेषता और उपादेयता समझ लेने के पश्चात् अब प्रश्न उठता है कि मन:संबर क्या है; क्या नहीं ? जब तक मनः संवर को सम्यक् रूप से नहीं समझा जाएगा, तब तक मन को कर्मानवों से रहित करना, मन की विविध शक्तियों और क्षमताओं का शुद्ध उपयोग करना, उसे शुद्ध परिणामों में प्रवृत्त . करना कथमपि सम्भव नहीं होगा।
क्या इन दोनों प्रक्रियाओं को मनोनिरोध कहेंगे?
यों तो मनोनिरोध, मनोनिग्रह, मनःसंयम, मनोगुप्ति, मनःसमाधारणता (मन की एकाग्रता), मनःस्थिरता, मनोविलय, मनःशून्यता, मनोदमन, मन का न होना, मन को मारना, मनोविजय आदि सब एक या दूसरे प्रकार से मनःसंवर के ही विविध रूप हैं।
सर्वप्रथम हम मनोनिरोध के पहलू को लेते हैं। क्या मन की समस्त चेष्टाओं, प्रवृत्तियों, या क्रियाओं को रोककर मन को सर्वथा निष्क्रिय, निश्चेष्ट, तथा मनन- चिन्तन से रहित कर देना मनोनिरोध है ? अथवा मन को मार कर शून्य कर देना, मन में उठने वाले विचारों या चिन्तन को दबा देना अथवा मन में उठने वाले चिन्तनमनन के प्रवाह को सर्वथा रोक देना मनोविरोध रूप मनःसंवर है ? अथवा व्यक्ति स्वयं ही नशीली चीजों का सेवन करके मूर्च्छित, निश्चेष्ट या नशे में चूर हो जाए कि मन कुछ भी क्रिया, चेष्टा या प्रवृत्ति न कर सके, क्या इसे मनोनिरोध रूप मनःसंवर कहा जाएगा ? मनोनिरोध की सही और गलत प्रक्रिया के निर्णयार्थ तीन अश्वारोहियों का रूपक
सर्वप्रथम मनोनिरोध की इन दोनों गलत प्रक्रियाओं को हम एक रूपक द्वारा समझाते हैं-एक बार तीन व्यक्तियों ने घुड़सवारी का विचार किया। उन्होंने एक-एक घोड़ा खरीदा और अपने- अपने घोड़े पर बैठकर चल दिये। घोड़ों के स्वभाव से वे अपरिचित थे। उन्हें वश में करने का अनुभव भी नहीं था। घोड़े थोड़ी ही देर में हवा से
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