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८३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
उसे विषयों के बीहड़ बन में भटकने देते हैं। बल्कि धैर्य-युक्त पुरुषार्थ, अभ्यास एवं विषयों के प्रति वैराग्य से मन को आस्रवों के उत्पथ की ओर जाने से रोककर संवर की दिशा में प्रेरित करते हैं।
वे समझते हैं कि मन की सहायता के बिना वे संवर-निर्जरारूपधर्म (कर्मक्षय) की साधना करके न तो अपने साधनापथ पर गति कर सकते हैं और न परमसाध्यरूप गन्तव्यस्थान - मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। साथ ही मन को स्वच्छन्द छोड़ देने पर भी वह चरमलक्ष्य की दिशा में गति - प्रगति करने के बजाय, विपरीत दिशा में ले जाकर संसाररूपी अटवी में ही भटकाता रहेगा।
अतः वे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा दुष्ट, साहसिक एवं भयंकर चंचल मन को अपने वश में कर लेते हैं, साध लेते हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र में केशी-गौतम-संवाद में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है। शीश्रमण गणधर गौतम से पूछते हैं- “आप एक साहसी, भयंकर, दुष्ट घोड़े पर सवार हैं, जो चारों ओर भाग-दौड़ कर रहा है। फिर वह आपको उन्मार्ग की ओर क्यों नहीं ले जाता ?”
गौतम स्वामी ने समाधान किया - यह मन ही बड़ा साहसी, दुर्दम्य और भयानक घोड़ा है, जो चारों ओर भागता है। मगर मैं उस दौड़ते हुए घोड़े का श्रुतरश्मि ( शास्त्रज्ञान रूपी लगाम) खींचकर उसे रोकता (निग्रह) करता हूँ। जिससे वह मुझे उन्मार्ग की ओर न ले जाकर सन्मार्ग की ओर ही ले जाता है।" (इस प्रकार मन को उत्कृष्ट एवं शुद्ध चिन्तन शक्तिरूपी गति की ओर मोड़ कर ) मैं उसे सम्यक् प्रकार से वश में करता हूँ। संवरनिर्जरारूप धर्म (कर्मक्षय) की शिक्षा से वह अभ्यस्त मन जातिमान अश्व के समान हो गया है। इसे मन पर विजय (मनोविजय) भी कहा जा सकता है।
मनोनिरोध या मनःसंयम क्या नहीं है, क्या है?
यह है मन को मारने, साधने या वश में करने का रहस्य ! इससे स्पष्ट है कि मन को शून्य, जड़वत् कर देना, या मन में उठने वाले प्रत्येक सम्यक् चिन्तन को भी दबा देना,
- भगवद्गीता
१. (क) तुलना करें - " अभ्यासेन तु कौन्तेय! वैराग्येण च गृह्यते ।” (ख) अयं साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधाव | जसि गोयम ! आरूढो कहं तेण न हीरसि ? पधावंतं निगिण्हामि सुय- रस्सी -समाहियं । न मे गच्छइ उमग्गं मग्गं च पडिवज्जइ ॥ मणो साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधाव | तं सम्मं निगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कंथगं ॥ २. देखें - उत्तराध्ययन सूत्र अ. २३, गा. ५५, ५६, ५८
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- उत्तराध्ययन २३/५५, ५६, ५८
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