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८२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
दीन-हीन-दुर्बल एवं पराधीन बना देती हैं। साथ ही क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, आवेश आदि स्वभाव को उत्तेजित करने वाली मानसिक आदतें भी मनुष्य को अर्ध - विक्षिप्त, उन्मादयुक्त, एवं उपहासास्पद बना देती हैं।
इन दोनों प्रकार की अवांछनीय मनःस्थितियों को सुधारने और मानसिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए मनोनिग्रह या मनः संवर का अभ्यास अतीव महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य है। मनुष्य का मानसिक चिन्तन जैसा जैसा होता है, तदनुसार ही उसका जीवन निर्माण होता है। इस बात को दृष्टिगत रखकर मनुष्य को अपने मन को शान्त, स्थिर एवं नियंत्रित रखने का अभ्यास करना आवश्यक है। '
मनुष्य का जैसा मन, वैसा ही बनता है जीवन
यह सच है कि मनुष्य का जैसा मन होगा, वैसा ही वह बनेगा। शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों का आधार भी मनःस्थिति का उन्नत अवनत या सुसंस्कृत - विकृत होना है। मनःस्थिति के परिवर्तन पर शरीरगत रासायनिक परिवर्तन निर्भर है। मन अगर स्वस्थ, सन्तुलित और सत्कार्य व्यस्त रखा जाए तो शरीर भी स्वस्थ और सशक्त बना रह सकता है। और मन को स्वस्थ एवं सन्तुलित रखने की कुंजी है- मनः संवर या मनोनिरोध ।
मनोनिरोध से कई उपलब्धियाँ
मनोनिरोध से विचारशक्ति दुर्बल, भयग्रस्त और कुण्ठित नहीं होती । मनोनिरोध से प्रत्येक कोटि का व्यक्ति अपने भीतर रहे अजन शक्ति के भण्डार को तथा अपने मौलिक सामर्थ्य का पर्याप्त उपयोग कर सकता है, जबकि मनोनिरोध के अभाव में स्वयं को दुर्बल, दुर्भाग्यग्रस्त, शक्तिहीन एवं साधनहीन मानकर व्यक्ति सदैव उसी हीन स्थिति में पड़ा रहता है।
मनुष्य अपने सशक्त और अशक्त विचारों के अनुसार ही परिस्थितियों को अनुकूल और प्रतिकूल बनाता है। सहयोग और तिरस्कार पाने में जितना दूसरों का अनुग्रह और विरोध कारण होता है, उससे भी अधिक बढ़कर मनुष्य का अपने मनोभावों का सुव्यवस्थित गठन और अगठन काम करता है। और अपने मनोभावों का सुव्यवस्थित गठन मनः संवर के द्वारा ही हो सकता है।'
मनोनिरोध का वास्तविक उद्देश्य
शास्त्रकारों ने इसलिए मनोनिरोध या मनोनिग्रह पर जोर दिया है, तथा उसके चमत्कारी परिणाम भी प्रत्यक्ष बताए और ग्रन्थों में अंकित किये हैं कि विचारशक्ति
अखण्ड ज्योति अगस्त १९७८ से भावांश ग्रहण- पृ. ११-१२
9.
२. वही, दिसम्बर १९७८ से भावांश ग्रहण पृ. ३८
३.
वही, सितम्बर १९७८, पृ. ४८
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