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८२४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६)
वास्तव में, मनोविजय कर लेने से व्यक्ति के जीवन की, तन, मन और वचन की तमाम बुनियादी आवश्यकताएं पूर्ण हो जाती हैं। यश-कीर्ति, प्रतिष्ठा, बौद्धिक समृद्धि आदि तो उसे अनायास ही प्राप्त हो जाती है। यहाँ तक कि आत्म-साक्षात्कार तथा अतीन्द्रिय ज्ञान अथवा अवधिज्ञान आदि प्रत्यक्ष ज्ञान भी प्राप्त हो सकते हैं-निर्मल, शान्त एवं स्थिर मन वाले व्यक्ति को। 'तत्त्वसार' में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है"मनलपी जल जब स्थिर एवं निर्मल हो जाता है, तभी उसमें आत्मा का दिव्य रूप झलकने लगता है।" ये सब उपलब्धियाँ मनःसंवर या मनोनिरोध से प्राप्त हो जाती हैं। व्यावहारिक दृष्टि से भी मनोनिरोध आवश्यक
" व्यावहारिक दृष्टि से सोचें तो मनोनिरोध इसलिए भी आवश्यक है कि मनोनिरोध या मनःसंयम से मनुष्य चिन्ता, उद्विग्नता, क्रोध, अहंकार, आवेश, आदि मानसिक उद्वेगों से दूर रहकर स्वस्थ और सन्तुलित जीवन जी सकता है। चिन्ताग्रस्त मनःस्थिति का सबसे बड़ा प्रभाव पाचन तंत्र पर पड़ता है। उल्लास भरी मनःस्थिति होने पर पाचन तंत्रों का नाव समुचित मात्रा में होता है और रक्त का परिमाण एवं स्तर ऊँचा रहता है। क्रोध, शोक, भय आदि मानसिक संक्षोभ से पाचनतंत्र पर दुष्प्रभाव पड़ता है। रक्त में विषाक्तता भर जाने से अनेक उपद्रव उठ खड़े होते हैं, जो शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को बर्बाद करके ही छोड़ते हैं। मनोविकारों की इन भंयकरताओं से बचने के लिए तथा मन को स्वस्थ एवं सन्तुलित बनाये रखने के लिए मनःसंयम अथवा मनःसंवर बहुत ही आवश्यक है। परिस्थिति का सुधार-बिगाड़ : मनःस्थिति पर निर्भर
परिस्थिति को सुधारने की बात सभी सोचते हैं, किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि इसके लिए मनःस्थिति पर ध्यान देना अत्यावश्यक है। अधिक एवं उचित तथा सही कार्य कर सकने का मूड क्लाइमेक्स वास्तव में संतुलित, प्रसन्न और आशान्वित मनःस्थिति का परिणाम है। अस्थिरता, अव्यवस्था, आतुरता और आशंका की यह चाण्डाल चौकड़ी मनुष्य की क्षमता का बुरी तरह अपहरण करती रहती है और उसकी मनःस्थिति को भी विकृत कर देती है। मनःस्थिति की इस विकृति को दूर करने के लिए अवसर या दैवी वरदान की प्रतीक्षा में बैठे रहना अपनी क्षमता और शक्ति को जाम कर देना है, और समय को भी खोना है। मूड बनने या बनाने के लिए मानसिक सन्तुलन और रचनात्मक चिन्तन या विधेयात्मक चिन्तन-मनन आवश्यक है। अस्त-व्यस्त, शंका-कुशंकाग्रस्त, एवं निषेधात्मक या ध्वंसात्मक चिन्तन से मानसिक शक्तियों का अपव्यय तथा असन्तुलन ही अधिक होता है।
१. "मणसलिले घिरभूए दीसइ अपा तहा विमले।' ..
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तत्त्वसार ४१
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