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..मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य ८२७
चिन्तनक्षमता मानव जीवन की सर्वोपरि सम्पदा है, उसका सही उपयोग करने वाले ही सुखी, समुन्नत एवं प्रत्येक प्रकार से समृद्ध बनते देखे जाते हैं। चिन्तन जब उच्चस्तरीय उद्देश्यों को अपनाने हेतु कटिबद्ध होता है, तब परिष्कृत जीवनक्रम के साथ आन्तरिक विभूतियों, शक्तियों तथा क्षमताओं और बहिरंग सफलताओं के द्वार खुलते हैं। मनोनिग्रह के द्वारा मन को इधर-उधर भागने से रोका जाता है। इसके अभ्यास से विचारों का बिखराव रुकता है और अभीष्ट प्रयोजनों में चिन्तन को नियोजित करते रहने से कार्य में सफलता-प्राप्ति का पथ प्रशस्त होता है। यह तो मनोनिग्रह.की प्रक्रिया का प्रारम्भ है, अन्त नहीं।
मनोनिग्रह का वास्तविक उद्देश्य है-निकृष्टता के साथ जुड़े हुए निषेधात्मक चिन्तन प्रवाह को मोड़ कर उसे उत्कृष्टता की दिशा में लगाना और उससे आध्यात्मिक विकास-की सृजनात्मक गतिविधियों और कार्यकलापों की रूपरेखा बनाना।'
वहारभाष्य' में मनोनिरोध के इसी उद्देश्य की ओर इंगित किया गया है"मन को अकुशल-अशुभ विचारों से रोकना चाहिए और कुशल-शुभ विचारों की ओर प्रेरित करना चाहिए।" मन की मूलभूत तीन शक्तियों, तीन स्तरों तथा चतुर्विध क्रिया वृत्तियों को समझो
' मन-शक्तियों को समुचित दिशा में प्रयुक्त करने से पहले साधक को मन की मूलभूत तीन शक्तियों को, तथा मन के तीन स्तरों को तथा क्रियात्मक मन की चतुर्विध वृत्तियों को समझ लेना आवश्यक है। बहुधा हम सब यह अनुभव करते हैं कि मन हर समय एक ही प्रकार की, एक-सी स्थिति में नहीं रहता। वह बार-बार बदलता रहता है। इसीलिए आचारांग में कहा गया है-"यह पुरुष (जीव) अनेक,चित्त वाला है।" अर्थात्-मन की प्रवृत्तियाँ क्षण-क्षण में बदलती रहती हैं। मनःसंवर के लिए मन की प्रवृत्तियों को विपरीत दिशा में जाने से रोक कर समुचित दिशा में लगाना. सर्वप्रथम अनिवार्य है।
। पहले कहा जा चुका है कि मन को विविध प्रवृत्तियों की प्रेरणा वृत्तियों से मिलती है। इन वृत्तियों को वैदिक दर्शनों में त्रिगुण कहा गया है। आचारांग सूत्र में “गुणों को मूल स्थान और मूल स्थानों को गुण" कहा गया है। यहाँ भी गुण से इन्द्रियों तथा मन के विभिन्न विषयों अर्थात् विषयवृत्तियों की ओर संकेत है। -
१. अखण्ड ज्योति सितम्बर १९७८ से भावांश ग्रहण पृ. ४८ २. : अकुसलमण-निरोहो, कुसल-मण उदीरणं च। -व्यवहारभाष्य पीठिका ७७ ३. (क) मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से पृ. ३० .... (ख) अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे।
-आचारांग सू. १ अः ३ उ. २
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