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८२८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) .. ....वैदिकदर्शनानुसार तीन गुण हैं'-सत्त्व, रज और तमा' ये गुण सम्पूर्ण भौतिक
और मानसिक जगत् के भी आधारभूत उपादान हैं। सत्त्व संतुलन और स्थिरता का तत्त्व है। रजोगुण क्रियाशीलता, कामवृत्ति और चंचलता का प्रतीक है। और तमोगुण जड़ता, आलस्य, प्रमाद, निष्क्रियता, अवसाद, मूढ़ता और भ्रान्ति का प्रतीक है। सत्त्वगुण मन को एक उच्चतर पुण्य दिशा में प्रवृत्त करता है, रजोगुण मन को बिखेरकर चंचल बना देता है और तमोगुण मन को निम्न स्तर पर परिचालित करता है।
विद्यारण्य ने पंचदशी' में इनकी विस्तृत व्याख्या की है। संक्षेप में इस प्रकार हैसत्त्वगुण से वैराग्य, क्षमा, उदारता आदि तथा रजोगुण से काम, क्रोध, लोभ, आदि विकार उत्पन्न होते हैं और तमोगुण से आलस्य, भ्रम, तन्द्रा आदि विकार पैदा होते हैं। मन में सत्त्वगुण के कार्य से पुण्य की तथा रजोगुण के कार्य से पाप की उत्पत्ति होती है।
और तमोगुण के कार्य से न पुण्य होता है, न पाप; किन्तु वृथा ही (मोहकमों से आवृत्त होकर) प्राणी (जन्म-मरणरूप संसार में भटकता हुआ) अपने आयुष्य को पूर्ण (नष्ट) ' करता है। ___प्रत्येक व्यक्ति के मन की बनावट (निवृत्ति-निष्पत्ति) इन तीन गुणों की मात्राओं के सम्मिश्रण तथा हेरफेर से की जा सकती है। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है-मानव के वैचित्र्य एवं वैविध्य पूर्ण स्वभाव का निर्माण मन के इन तीनों गुणों (मुख्य वृत्तियों)के आधार पर होता है। इस पर से मन की स्थिरता-अस्थिरता का विश्लेषण एवं विवेक भी किया जा सकता है। यदि मन एक ही मौलिक तत्त्व से बना हुआ कूटस्थ-नित्यवत् होता, तब तो उसे बदलना तथा उसकी शक्तियों को अभीष्ट दिशा में नियोजन करना सम्भव न होता। तब तो मनुष्य जैसी स्थिति में पैदा हुआ है, उसी एक ही स्थिति में ही जिंदगीभर पड़ा रहता, न उसके स्वभाव में परिवर्तन होता, न उसके गुणों में।
परन्तु मन की इन मौलिक शक्तियों में परिवर्तन हो सकता है, इस अपेक्षा से साधक मन की शक्तियों को मनःसंवर को दिशा में मोड़ सकता है। शनैः शनैः सत्त्वगुणोपार्जित पुण्य (शुभ) कर्मों के आसवं से भी ऊपर उठकर शुद्ध अबन्धककर्म (अकर्म) की स्थिति में पहुँच सकता है।
१. (क) भगवद्गीता - (ख) जे गुणो से मूलट्ठाणे जे मूलट्ठाणे से गुणे।। -आचारांग सूत्र १ अ. २, उ.१ २. (क) मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण पृ. ३० (ख) "वैराग्यं क्षान्तिरौदार्यामत्याद्याः सत्त्वसम्भवाः। ...
... कामक्रोधौ लोभयलावित्याधाः रजसो स्थिताः।"... . "आलस्य-प्रान्ति-तन्द्राद्या विकरास्तमसोत्थिताः ।"
"सात्त्विकैः पुण्यनिष्पत्तिः पापोत्पत्तिश्च राजसैः।। तामसैनॊभयं किन्तु वृथायुः क्षपणं भवेत्।"
-पंचदशी २/१४-१६
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