________________
८१८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) मनरूपी उपनेत्र स्वच्छ और निर्मल होता है तो वह वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान कराकर आत्मा के मुक्त होने में कारण बनता है।
“यधपि ज्ञान आत्मा का कार्य है, किन्तु ज्ञान में जो अविद्या, मोह, मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि एवं कषायों का विकार आता है, वह आत्मा का न होकर मन का कार्य है। यद्यपि ये विकार मन के कार्य हैं, तथापि उनका वास स्थान आत्मा को माना गया है। जैसे-उपनेत्रा में कलुषित रंग होता है, किन्तु उस कलुषित रंग का ज्ञान तो उपनेत्रधारी को होता है। इसी प्रकार मनरूपी उपनेत्र में कलुषित विकार रंग होने पर उसका ज्ञान तो मनरूप उपनेत्र धारी आत्मा को, चेतना को होता है।' '
यद्यपि यह कहा जाता है कि मन ही बन्ध और मोक्ष का कारण है, तथापि सिद्धान्तानुसार बन्ध का मूल कारण-कषाय या रागद्वेष है; और मोक्ष का मूल कारण है-कषायों या रागद्वेषादि का उपशमन या इनसे विरमण। वस्तुतः कषाय या राग-द्वेष के कार्य को मन पर आरोपित किया गया है। जिन कषाययुक्त या रागद्वेषयुक्त वृत्तियों या. संस्कारों को जीव संचित करता है; वे ज़ब कालान्तर में उभरते हैं; तब बन्धन में डालते हैं । और जब संस्कारों का विलय कर दिया जाता है, तब वे मुक्ति की ओर ले जाते हैं।
संक्षेप में-संस्कारों का निर्माण बन्ध है, और उनका विलय मोक्ष है। संस्कार जब उभरते हैं, तब मन उत्तेजित होता है और उनके विलय होने पर शान्त हो जाता है। संस्कार रहता है परोक्ष में और मन रहता है प्रत्यक्ष में। इसी कारण कह दिया जाता है'मन बन्ध और मोक्ष का कारण है। मन की चंचलता के कारण ही इसका निरोध करना अभीष्ट ____ वस्तुतः राग-द्वेषादि वृत्तियों एवं कषायों के कारण ही मन उत्तेजित और चंचल हो उठता है। तभी मन में विविध विकल्प उठते हैं; मन में ही इच्छाएँ, वासनाएँ, विषयासक्ति आदि उत्पन्न होती हैं। इसलिए मन का निरोध करना ही अभीष्ट है, ताकि उसे वश में किया जा सके। अनियंत्रित मन दुष्ट घोड़े की तरह मनुष्य को विपरीत मार्ग पर ले जाता है। .... . - उत्तराध्ययन में प्रतिपादन किया गया है कि मन बड़ा ही दुष्ट और साहसिक अश्व है, जो चारों ओर भागता है, और मनुष्य को उन्मार्ग की ओर ले जाता है। अतः इसका निग्रह करना साधक के लिए अनिवार्य है। मन का निरोध क्यों आवश्यक है ?
भगवद्गीता में भी अर्जुन, श्रीकृष्ण से कहते हैं-हे कृष्ण ! मन अत्यन्त चंचल है,
१. जैन, बौद्ध, गी. आ.भावांश ग्रहण, पृ. ४८५ - २. महावीर की साधना का रहस्य पृ. ११७ ३. उत्तराध्ययन अ. २३/५५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org