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८०६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) मन : सचेतन भी और अचेतन भी : कैसे?
मनचेतन है या अचेतन ? इस प्रकार का प्रश्न जब दार्शनिक जगत में आया, तब बौद्धधर्म ने मन को सचेतन तत्त्व बताया, सांख्यदर्शन ने भी उसे जड़ 'प्रकृति' से उत्पन्न
और त्रिगुणात्मक माना, भगवद्गीता में भी इसी तथ्य की प्रतिध्वनि है। किन्तु जैनदर्शन ने मन को चेतन-अचेतन उभयरूप माना।
जैनविचारणा में मन के भौतिक (पौद्गलिक) रूप को द्रव्यमन कहा गया है, जो मनोवर्गणा के पुद्गलों से निर्मित होता है। सामान्यरूप से इसमें शरीर के सभी ज्ञानात्मक, निर्णयात्मक तथा संवेदनात्मक अंगों का समावेश हो जाता है। अर्थात् इसमें मन, बुद्धि, . चित्त और हृदय-इन चारों अन्तःकरण के बाह्य रचनात्मक अवयव आ जाते हैं।
दूसरा मन का अभौतिक चेतनात्मक रूप है, उसे 'भावमन' कहते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक रचनातंत्र में भावमन चैतन्यधारा प्रवाहित करता है। भावमन को ज्ञान, संवेदन और संकल्प निर्णय आदि की चैतन्य शक्ति आत्मा से डायरेक्ट प्राप्त होती है, जिसे वह द्रव्यमन में प्रवाहित करता है।'
चूँकि मन की क्रिया का संचालन मस्तिष्क के द्वारा होता है, इसलिए वह यांत्रिक क्रिया है। मस्तिष्करूपी यंत्र बिगड़ जाए तो मन की क्रिया नहीं होती, फलतः मानसिक चेतना प्रकट नहीं होती। अतः मन यांत्रिक क्रिया का प्रतिफलन होने से अचेतन है और चेतना (आत्मा) के प्रकाश से प्रकाशित होने से चेतन भी कहा जा सकता है। अर्थात्मस्तिष्क की यांत्रिक क्रिया की दृष्टि से मन को अचेतन और उसकी आत्मिक क्रिया की दृष्टि से चेतन कहा जा सकता है।
इसलिए मन यों तो अचेतन (जड़) है, परन्तु वह द्रव्यमन है। इसके विपरीत जिसके माध्यम से आत्मा द्वारा मिली हुई चेतना प्रकट होती है, वह भावमन सचेतन है। इस दृष्टि से जैनदर्शन मन को जड़ भी मानता है और चेतन भी। जड़ और चेतन के मध्य योजक कड़ी : मन ____ चूँकि जड़ और चेतन दोनों के मध्य सम्बन्ध मानना अत्यावश्यक है, उसको माने बिना जड़ कर्मों का चेतन आत्मा के साथ बन्ध (सम्बन्ध) बन ही नहीं सकता है। इसलिए जैनदर्शन में मन को उभयात्मक मानकर कर्मवर्गणा और चेतन-आत्मा के मध्य योजक कड़ी माना गया है। मन की जो शक्ति है, वह चेतनात्मक है, और उसका कार्यक्षेत्र भौतिक जगत् है। जड़ (कर्म परमाणु) पक्ष की ओर से वह भौतिक पदार्थों से प्रभावित होता है,
और चेतनपक्ष की ओर से आत्मा को प्रभावित करता है। १. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से भावांश ग्रहण, पृ. ४७९-४८० २. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण पृ. ४८०
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