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मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य ८१५
पड़ा कि वह आतंकित और विचलित हो गया। अपनी माता लुहारवेट के साथ घर आते ही वह बेहोश हो गया। जागा तो फिर नींद नहीं आई। डॉक्टरों ने बहुत चिकित्सा की, महीनों तक उपचार किया, मगर नींद नहीं आई सो नहीं आई। उसे ७१ वर्ष की आयु तक नींद नहीं आई।
डॉ. सोमन ने इस प्रकार की कई घटनाओं को संकलित करके एक पुस्तक लिखी है - 'माइण्ड मिस्ट्रीज एण्ड मिरेकल्स' जिसमें उसने लिखा है कि "मन एक बहुत सूक्ष्म रहस्यमयी अद्भुत शक्तिशाली सत्ता है, उसके रहस्यों को समझ पाना अति दुष्कर है।"" इसीलिए इसिभासियाई में कहा गया है- "मनुष्य का मन अत्यन्त गहन है, उसका समझ पाना कठिन है । २
बन्ध और मोक्ष की दृष्टि से मन की अगाध शक्ति का परिचय
जैनदर्शन में बन्ध और मोक्ष की दृष्टि से मन की अपार शक्ति का निरूपण है। जैनकर्मसिद्धान्त का एक सिद्धान्त है कि काययोग से यदि मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट रूप बन्ध हो तो एक सागरोपम काल की स्थिति का हो सकता है, वचनयोग के मिलने से उसी मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट बन्ध पच्चीस सागरोपम कालिक स्थिति का हो सकता है। प्राणेन्द्रिय के मिलने पर पचास सागर की स्थिति का और चक्षुरिन्द्रिय के मिलने पर सौ सागरोपम की स्थिति का उत्कृष्ट बन्ध हो सकता है। जब अमनस्क पंचेन्द्रिय की अवस्था में कान मिलते हैं, तो उस अवस्था में पूर्वोक्त मोहनीय कर्म के उत्कृष्टबन्ध की स्थिति हजार सागरोपम तक पहुँच जाती है। किन्तु अगर उनके साथ मन मिल जाता है तो उस उत्कृष्ट बने हुए मोहनीय कर्म के बन्ध की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटी (७० करोड़ x ७० करोड़) सागरोपम काल तक पहुँच जाती है।
यह है बन्धन की दृष्टि से मन की अगाध शक्ति का संक्षिप्त परिचय । यही कारण है कि तन्दुलमत्स्य जैसा पंचेन्द्रिय समनस्क जीव किसी अन्य प्रकार से जलचर जीवों की हिंसा किये बिना केवल मन से जल-जन्तुओं की हिंसा का विचार करने मात्र से मरकर सप्तम नरक का मेहमान बन जाता है।
दूसरी ओर मोक्ष (कर्ममुक्ति) की दृष्टि से भी मन अपार शक्तिशाली है। जैनदर्शन के अनुसार मन मुक्ति-महल में प्रवेश करने का प्रथमद्वार है। सम्यग्दर्शन, विरुति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग-संवर तथा अहिंसादि पांचों संवरों की साधना का सर्वप्रथम जन्म मन में होता है, तत्पश्चात् वचन और शरीर उनमें प्रवृत्त होते हैं।
१. अखण्ड ज्योति दिसम्बर १९७८ से संक्षिप्त सारांश पृ. १३
२.
" मणुस्स - हिदयं पुणिणं, गहणं दुब्वियाणकं ।”
- इसिभासियाई ४/६
३.
(क) जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से साभार उद्धृत पृ. ४८५ (ख) तंदुल - वेयालियं प्रकीर्णक देखें।
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