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मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य ८१३ संकल्प-विकल्पात्मक शक्ति के अधीन है। संसार के समस्त पदार्थों से हानि-लाभ या कल्याण-अकल्याण उपयोगकर्ता के मन पर निर्भर है।
यह उपयोगकर्ता की मनःशक्ति पर निर्भर है कि वह किस पदार्थ का कैसे कहाँ कितनी मात्रा में सदुपयोग, दुरुपयोग या अनुपयोग करता है ? वह अपनी मनःशक्तियों को स्वच्छन्द छोड़कर तथा विकृत और दूषित बनाये रखकर उनका विषयोपभोगासक्ति में, कषायों के कूट जाल में, रागद्वेषादि के मोहयंत्र में फंसने का पराक्रम भी कर सकता है, और चाहे तो मनःशक्ति को नियंत्रित, सुगुप्त और सुरक्षित एवं एकाग्र करके उससे आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुंच सकता है। वह मनःशक्ति को अमंत्रित असंवृत रखकर कमों के आस्रव और बन्ध के दुष्परिणामों को भोगता है, और मनःशक्ति से संवर और निर्जरा के द्वारा कर्मों से अंशतः सर्वांशतः मुक्त भी होकर मुक्ति की अचल सम्पदा को भी प्राप्त कर सकता है। ___ • मानव जाति का यह दुर्भाग्य है कि वह मन जैसी प्रचण्ड शक्ति का उपयोग केवल लौकिक एवं भौतिक क्षुद्र संकीर्ण स्वार्थों में एवं इन्द्रिय-विषयभोगों में करते हुए नष्ट एवं विकृत करता रहता है। शरीर को एवं इन्द्रियों को भोग सामग्री मानकर स्वयं को महान् आध्यात्मिक सुख-सम्पदाओं से वंचित कर देता है।' जीवसत्ता और ब्रह्मसत्ता को मिलाने और पृथक् करने वाली सत्ता :मनःशक्ति
वैदिक परम्परा के अनुसार-जीवसत्ता और ब्रह्मसत्ता (अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा) के बीच यदि कोई चेतनसत्ता काम करती है, इन दोनों को परस्पर मिलाती है यो अलग करती है, तो वह मन ही है। विकृत मनःस्थिति का शरीर पर दुष्प्रभाव . डॉ. कैनन की अध्यक्षता में अमेरिका के डॉक्टरों और मनश्चिकित्सकों की टीम ने अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि यदि व्यक्ति की मनःस्थिति अस्तव्यस्त और आवेगग्रस्त होती है तो उसका विपरीत प्रभाव पेट की (पाचन) क्रियाओं पर पड़ता है। . उसका पेट सदा के लिए खराब रहने लगता है। . शरीर और मन का अविच्छिन्न सम्बन्ध होने से आरोग्य, दीर्घजीवन, पुरुषार्थ, प्रतिभा, मानसिक सहृदयता, स्फूर्ति आदि अनेक लक्षणों से मानसिक स्थिति का परिचय मिलता है। मन हारा, थका, निराश हो तो शरीर का गठन सही होने पर भी उसमें निर्जीवता-सी, उदासी, हताशा छाई रहती है। इसके विपरीत शरीर की आकृति कालीकलूटी और गठन की दृष्टि से दुबली-पतली होने पर भी भीतरी उत्साह, मानसिक स्फूर्ति
आदि उस काया को तेजस्वी और आकर्षक बना देते हैं। १. अखण्ड ज्योति दिसम्बर १९७८ से भावांश ग्रहण पृ. १४ . .. २. वही, पृ. १५
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