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इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७९१
को) रागद्वेष से रहित रखता है तो अपने वश में कर लेता है। ऐसा (इन्द्रियजयी) साधक चित्त की प्रसन्नता (स्वच्छता - निर्मलता ) को प्राप्त होता है और चित्त की प्रसन्नता (निर्मलता) के होने पर (इन्द्रिय-संवर सिद्ध होने से ) उस साधक के समस्त दुःखों का नाश हो जाता है। उस प्रसन्नचित्त साधक की बुद्धि समभाव में स्थिर हो जाती है।'
'समयसार' में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है कि " ( इन्द्रिय-संवर का) ज्ञानी साधक आत्मा (अन्तर् में रागादि का अभाव होने के कारण ) विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता । इसके विपरीत अज्ञानी आत्मा (इन्द्रिय विषयों के प्रति रागादि का भाव अन्तर् में होने से ) विषयों का सेवन नहीं करता हुआ भी, सेवन करता है।" दशवैकालिक नियुक्ति में भी इन्द्रिय-संवर एवं इन्द्रिय- आनव के लिए साधक को विशिष्ट आधार बताते हुए कहा गया है - "जिस साधक का चित्त शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में न तो अनुरक्त होता है, और न द्वेष करता है, उसी का इन्द्रिय - निग्रह प्रशस्त होता है । ": " इसके विपरीत जिस साधक की इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, (असावधानी से ) उन्मार्गगामिनी हो गई हैं, वह दुष्ट घोड़ों के वश में पड़े हुए सारथि के समान उत्पथ में भटक जाता है, (इन्द्रियों के वश में हो जाता है)।"२
इन्द्रिय विषयों में आसक्त बहिरात्मा इन्द्रिय-संवर नहीं करता
जैनदर्शन में आत्मा के तीन रूप बताए हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इसमें से बहिरात्मा का फलितार्थ बताते हुए मोक्ष पाहुड में कहा गया है- 'इन्द्रियों (के विषयों में) में रमण करने वाला (आसक्त) व्यक्ति बहिरात्मा है'। वस्तुतः जिस साधक को स्व-पर का, हित-अहित का, आनव-संवर का श्रेय पाप का बोध नहीं होता, वह अज्ञानी साधक इन्द्रियों को स्थूलरूप से बंद करके निश्चेष्ट होकर बैठ जाए, उससे वह इन्द्रियनिग्रह या इन्द्रिय-संवर को सिद्ध नहीं कर सकता।
. इसीलिए शीलपाहुड में कहा गया है - " इन्द्रिय विषयों से विरक्ति ही शील (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, सदाचार, तप, जीवदया आदि) है। और शील (सम्यक् आचार) के बिना इन्द्रियों के विषय व्यक्ति के ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। *
द्रव्य-इन्द्रिय द्वारा हुआ बोध प्रामाणिक और यथार्थ नहीं, क्यों और कैसे?
वस्तुतः द्रव्य इन्द्रियाँ पौद्गलिक हैं, उन्हें सुख-दुःख का, हानि-लाभ का श्रेय -
१. भगवद्गीता अ. २, श्लो. ६४, ६५ २. (क) समयसार १९७
(ख) दशवैकालिक नियुक्ति २९५, २९८
३. मोक्षपाहुड ३५
४. शीलपाहुड ४०, १९, २
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