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८०२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) .
थोड़े-से समय के लिए आँखें मूंद कर बैठ गए, इतने से नेत्रेन्द्रिय पर विजय नहीं जो जाती। दो चार महीनों के लिए अमुक वस्तु का खान-पान बंद कर दिया, इतने से रसनेन्द्रिय पर विजय नहीं हो जाती। यह एक प्रकार का भ्रम होगा। व्यक्ति इतना-सा इन्द्रिय विषयों के सम्पर्क का त्याग कर ले, इससे इन्द्रियविजय तक पहुँचना तो दूर, इन्द्रियविजय के प्रथम द्वार तक भी नहीं पहुँचा गया है, समझ लें।
तात्पर्य यह है कि विषयों के साथ जब तक भोग वासना (रस या वासना) का सम्बन्ध रहेगा, तब तक व्यक्ति के चाहे जब अकस्मात् पतित होने की सम्भावना है। इतने मात्र से व्यक्ति पूर्ण रूप से आश्वस्त विश्वस्त नहीं हो पाता कि इन्द्रियाँ अपने विषय की ओर मन को घसीटेंगी नहीं। चतुर विषवैद्य या सपेरा सांप को पूर्णतया वश में करके भी शंकित बना रहता है। चित्त जब प्रत्याहार-साधना से आत्मचिन्तन में एकाग्र या निरुद्ध हो जाता है, तभी इन्द्रियों द्वारा विषयों का बोध रुक जाता है। यही इन्द्रियों की परमवश्यता की स्थिति है। इसे ही पूर्ण इन्द्रियजय या परम इन्द्रिय-संवर कहा जा सकता है। इस सम्बन्ध में सूत्रकृतांग सूत्र में विषयोपभोगों से आत्मा की भिन्नता को इन्द्रियजय का मार्ग बताते हुए कहा गया है-जब साधक इस प्रकार का दृढ़ निश्चय कर लेता है कि "शब्द, रूप, रस, गन्ध आदि कामभोग (जड़पदार्थ) अन्य हैं, मैं (आत्मा-सचेतन) और हूँ।' इन्द्रिय विषयों के प्रति रस का मार्गान्तरीकरण करना प्राथमिक इन्द्रिय संवर है
कतिपय आचार्यों का कहना है-पूर्ण इन्द्रिय-संवर या इन्द्रियजय निम्न भूमिका वाले व्यक्तियों के द्वारा सम्भव नहीं है। अतः इन्द्रिय-संवर या इन्द्रियजय के प्राथमिक अभ्यासी के लिए इन्द्रिय विषयों के प्रति जो रस या वासना है, उसका मार्गान्तरीकरण कर दिया जाए, अर्थात्-उन्हें पापासवों से हटा कर शुद्ध भावों में लगा दिया जाए, यह भी संवर का एक प्रकार है। जैसे-आँखें मनोज्ञ रूप या सौन्दर्य को देखने के लिए लालायित होती हैं, उन्हें परमात्मा या शुद्ध आत्मा के या महापुरुषों के अथवा साधु, साध्वियों के दर्शन करने में लगाना, जीवदया करने में, पीड़ित प्राणियों को देखकर करुणा करने में, दुःखियों, पददलितों, रोगियों, चिन्तितों को देखकर उनके प्रति सहानुभूति दिखाने, उन्हें आश्वासन देने तथा यथाशक्ति उनकी सेवा करने में नेत्रेन्द्रिय का सदुपयोग करना चक्षुरिन्द्रिय विषय का मार्गान्तरीकरण करना, रस-परिवर्तन करना
१. (क) पातंजल योगदर्शनम् विद्योदय-भाष्यसहित (आचार्य उदयवीर शास्त्री) से पृ. १६०
(ख) महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. ८५ (ग) अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. २० (घ) अन्नो खलु कामभोगा, अत्रो अहमसि।
-सूत्रकृतांग २/१/९
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