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इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७९३ में है-विलासिता का प्रांगण। अतः किसी भी वस्तु या व्यक्ति को देखने में वस्तु या व्यक्ति की आकृति एक-सी होते हुए भी उससे उत्पन्न संवेदनाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं।' श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा पदार्थ बोध में भी श्रोता की दृष्टि, भावना, संवेदना भी कारण ___इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय से भी सुनने से जो बोध होता है, वह भी प्रत्येक प्राणी का, यहाँ तक कि प्रत्येक मनुष्य की श्रवणेन्द्रिय की रचना में, उसके द्वारा श्रवण करने की क्षमता में, संवेदना एवं भावना में, दृष्टि में एवं उसकी ज्ञानचेतना की तीव्रता, मन्दता, मति-श्रुत ज्ञानावरणीय क्षयोपशम की न्यूनाधिकता के कारण श्रवण की हुई वस्तु के स्वरूप और कार्य के बोध में बहुत अन्तर आ जाता है।
इसलिए श्रवणेन्द्रिय बहरे को छोड़कर होती तो सभी मनुष्यों के है, परन्तु कोई उसका उपयोग कर्मों के आसव को बढ़ाने वाली बातों को सुनने में करते हैं, और कोई उसका उपयोग आसव-वृद्धिकारी बातों को छोड़कर संवर-प्राप्तकारी महत्त्वपूर्ण, आत्मा से सम्बद्ध तथा परमात्मपद-प्राप्तिकारी बातों के श्रवण, अध्ययन, मनन आदि में करते
श्रवणेन्द्रिय द्वारा अध्यात्मज्ञान उपार्जन के लिए आवश्यक साधन, सुविधा तथा उसे ग्रहण करने के लिए मस्तिष्कीय प्रखरता होने पर भी बहुधा मनुष्य उस ज्ञान सम्पदा से वंचित रह जाता है। इसमें श्रोत्रेन्द्रिय का दोष नहीं, वह तो शब्दों को ग्रहण करने का माध्यम है। उन शब्दों का सामान्य अर्थबोध भी वह करा देती है, किन्तु उनका गहराई से सम्यक् अर्थबोध करने में श्रोता की दृष्टि, भावना, संवेदना आदि भी मुख्य कारण हैं। मनोयोगपूर्वक श्रवण के बिना श्रोत्रेन्द्रिय से लाभ नहीं उठाया जा सकता
___ अध्यात्मज्ञान की चर्चा भी ध्यानपूर्वक सुनने से बहुत-सी सारगर्भित बातें ज्ञात हो जाती हैं। किन्तु उपेक्षापूर्वक, अरुचिपूर्वक अन्यमनस्क होकर सुनने से, जो शब्द कान में पड़ते हैं, उनका एक चौथाई हिस्सा भी पल्ले नहीं पड़ता, न ही सुना हुआ तथ्य गले उतरता है। उस श्रवण का प्रभाव भी श्रवण काल में ही समाप्त हो जाता है। मनोयोगपूर्वक सुने बिना श्रवणेन्द्रिय से भी कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता। इन्द्रियों से विशेष ज्ञान कर्मक्षयोपशम, संवेदन आदि पर निर्भर _ निष्कर्ष यह है कि पांचों इन्द्रियाँ अपने आप में वे सम्पर्क में आने वाले पदार्थ या प्राणी का यथार्थ अर्थबोध करा सकने में असमर्थ होती हैं। इन्द्रियों के सहारे से पदार्थों का सामान्य ज्ञान अवश्य हो जाता है, किन्तु वास्तविक एवं यथार्थ ज्ञान तो व्यक्ति की अपनी दृष्टि, कर्मों का क्षयोपशम, भावना, संवेदना आदि पर निर्भर है। इन्द्रिय संवर के रहस्यों
१. अखण्ड ज्योति मई १९७८ से भावांश ग्रहण, पृ. १३ २. वही, मई १९७८ से भावांश ग्रहण, पृ. १४
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