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इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७९५
• इसलिए इन्द्रिय-संवर के साधक को इन्द्रियों के द्वार पर पहरा देने के साथ-साथ मन के द्वार पर भी पहरा देना अनिवार्य है। अतः जो भीतर ही भीतर छिपा बैठा है, उस अन्तर्मन का द्वार बन्द कर देना चाहिए। इन्द्रिय द्वार बन्द करने हेतु मन का भीतरी द्वार भी बंद करना जरूरी
इन्द्रियों का दरवाजा तो कदाचित् आसानी से बंद किया जा सकता है, परन्तु मन का दरवाजा बंद करना बहुत ही कठिन है। मन का दरवाजा बाहर ही नहीं, भीतर भी है। इन्द्रियों के द्वारा विषयों-पदार्थों के ग्रहण करने के साथ-साथ अन्तर में स्थित मन (अज्ञात मन) से जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि विकारों की जो किरणें आ रही हैं, उन गृहीत विषयों पर अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ, रुचिकरअरुचिकर की छाप लगाने के लिए। ___ तन्त्रग्रन्थों में कहा गया है कि “इन्द्रियों की प्रवृत्ति-निवृत्ति पर मन का प्रभुत्व है, वही इनका संचालन या निरोध करने में समर्थ है। मन अवरुद्ध हो जाए तो इन्द्रियाँ भी अवरूद्ध हो सकती हैं। इन्द्रियों की चंचलता मन की चंचलता पर निर्भर है। अतः मन के द्वार को बंद कर देने से इन्द्रियों के द्वार बन्द हो सकते हैं।' मन और कषायों को जीत लेने पर इन्द्रियाँ स्वयं जीत ली जाती हैं ।
उत्तराध्ययन सूत्र में केशी और गौतम का लम्बा संवाद उल्लिखित है। आत्मा, मन, कषाय और इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जीतने के विषय में पूछने पर गौतम स्वामी ने यह नहीं कहा कि पहले इन्द्रियों को जीतो। बल्कि उन्होंने कहा कि “एक मन (या आत्मा) को जीत लेने पर चार कषाय सहित पांच शत्रु जीत लिये समझो। और कषाय सहित मन को जीत लेने पर यानी मन के स्थिर और शान्त होने के साथ ही कषाय भी शान्त हो गए
और कषायों के शान्त होते ही पांचों इन्द्रियाँ भी जीत ली गई यानी मन और चार कषाय सहित पांचों इन्द्रियाँ, अर्थात्-वे दसों ही जीत लिये गए।"
भगवद्गीता में भी स्थितप्रज्ञ (इन्द्रिय-संवर-साधक) के लक्षण के सन्दर्भ में बताया गया है कि "जिस प्रकार कछुआ (बाह्य संकट का आभास होते ही) अपने अंगों को सर्वथा समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष (इन्द्रिय-संवर साधक) अपनी इन्द्रियों को सब ओर से इन्द्रिय-विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि (संवर धर्म में) स्थिर हो जाती है।"
१. (क) अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९७६ से भावांश ग्रहण पृ. २०
(ख) महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ.८३ २. एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस।
दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं॥ -उत्तराध्ययन आ. २३ गा. ३६ ३. यदा संहरते चाऽयं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
-गीता २/५८
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