________________
इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७७३
एक समान इन्द्रिय- धारक प्रणियों को भी समान रूप से तथा प्रामाणिक रूप से विषयों और वस्तुओं का बोध और ग्रहण नहीं होता, इसका मूल कारण तो ज्ञानावरणीय आदि कर्म हैं, उन कर्मों के क्षयोपशम की दृष्टि से भी प्राणियों द्वारा विषयों का पदार्थों के बोध एवं ग्रहण में तारतम्य होता है। इन्द्रियों की रचना और लब्धि (शक्ति) में भी अन्तर पाया जाता है। जैनागम प्रज्ञापना सूत्र के इन्द्रियपद तथा अन्य आगमों और व्याख्या ग्रन्थों में इस पर सम्यक् विश्लेषण किया गया है।
द्रव्येन्द्रिय के दो उप-विभाग : निर्वृत्ति और उपकरण
इसी कारण जैनागमों तथा तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रन्थों में पूर्वोक्त पांच इन्द्रियों के दो-दो प्रकार बताए गए हैं- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । किसी भी इन्द्रिय की बाह्य और आन्तरिक रचना को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। द्रव्येन्द्रियाँ पुद्गलमय - जड़मय होती हैं, क्योंकि इनकी संरचना पुद्गल-परमाणुओं से होती हैं। इन पांचों द्रव्येन्द्रियों के प्रत्येक के निर्वृत्ति और उपकरण के रूप में दो-दो उपविभाग होते हैं। शरीर पर दिखाई देने वाली इन्द्रियों की पुद्गल -स्कन्ध- विशिष्ट रचना रूप आकृतियाँ निर्वृत्ति हैं। तथा निर्वृत्ति इन्द्रिय का जो उपकारक हो, वह उपकरण इन्द्रिय है।
निर्वृत्ति-इन्द्रिय के भी दो-दो प्रकार हैं- आभ्यन्तर निर्वृत्ति और बाह्य निर्वृत्ति । इन्द्रियाकार में अवस्थित विशुद्ध आत्म प्रदेशों का जो इन्द्रियाकार परिणमन है, वह आभ्यन्तर - निर्वृत्ति है। तथा इन्द्रियव्यपदेश को प्राप्त हुए उन्हीं आत्मप्रदेशों पर नामकर्म के उदय से इन्द्रियाकार परिणत जो पुगल-प्रचय है, वह ब्राह्य निर्वृत्ति है। जैसे- कान आदि की जो झिल्ली है, वह बाह्य-निर्वृत्ति है और नामकर्म के उदय से जिसकी रचना हो, वह आभ्यन्तर - निवृत्ति है।
द्रव्येन्द्रिय का दूसरा प्रकार है-उपकरण। यह निर्वृत्ति का उपकारक -सहयोगी है, इसलिए इसे उपकरण कहा जाता हैं। इसके भी दो दो प्रकार हैं- बाह्य उपकरण और आभ्यन्तर उपकरण। जैसे- आँख में काला और सफेद मटेना आदि आभ्यन्तर उपकरण हैं, तथा आँख की बरोनी, मोह तथा पलकें, आदि बाह्य उपकरण हैं। चक्षुरिन्द्रिय को 'अपने विषय का ग्रहण और बोध करने में ये दोनों ही अपेक्षित है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के बाह्य आभ्यन्तर उपकरण के विषय में समझ लेना चाहिए।"'
भावेन्द्रिय का स्वरूप और प्रकार
इन्द्रियों का दूसरा रूप है-भावेन्द्रिय; जो जीव के आत्मिक परिणाम रूप इन्द्रिय
" द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियमिति" - तत्त्वार्थवार्तिक २/१६/४/१३०,
(ख) प्रज्ञापनासूत्र पद १५ टीका पृ. ७४ (ग) तत्त्वार्थसूत्र २/१६ (घ) सर्वार्थसिद्धि २/१६/१७५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org