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इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७७५
श्रोत्रेन्द्रिय के तीन विषय हैं-जीव शब्द, अजीव शब्द और मिश्र शब्द । चक्षुरिन्द्रिय के पांच विषय हैं - काला, पीला, नीला, लाल और सफेद । घ्राणेन्द्रिय के दो विषय हैं - सुगन्ध और दुर्गन्ध। रसनेन्द्रिय के पांच विषय हैं-कटु, अम्ल, लवण, तिक्त और मधुर तथा स्पर्शेन्द्रिय के आठ विषय हैं-शीत, उष्ण, रूक्ष, चिकना, भारी, हलका, कर्कश (खुर्दरा) और कोमल । इस प्रकार पांचों इन्द्रियों के कुल मिलाकर (३+५+२+ ५+८=)२.३ विषय हैं।'
पंचेन्द्रियों से विषयों का ग्रहण, बोध, सेवन तथा आत्मा को आकर्षणकरण
सामान्यतया सांसारिक छद्मस्थ आत्मा इन पांचों इन्द्रियों की सहायता से विषयों का ग्रहण, बोध एवं सेवन (उपभोग) करता है। 'भगवद्गीता' भी इसी तथ्य का समर्थन करती है - " शरीर में स्थित रहकर यह जीवात्मा श्रोत्र, नेत्र और त्वचा (स्पर्श) के, तथा रसना, नासिका और मन के आश्रय से, अर्थात् इन सबके सहारे से विषयों का सेवन (उपभोग) करता है।” “प्रज्ञापनासूत्र " के इन्द्रियपद (१५ वें पद ) तथा अन्य भगवती आदि आगमों और जैन ग्रन्थों में विस्तार से निरूपण किया गया है कि इन्द्रियाँ किस प्रकार अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं, सम्बन्ध स्थापित करती हैं" और सांसारिक छद्मस्थ आत्मा को अपने-अपने विषयों के प्रति कैसे आकर्षित और प्रभावित करती हैं ।
इन्द्रियाँ सांसारिक पदार्थों और विषयों से आत्मा को जोड़ती हैं।
वस्तुतः इन्द्रियों के माध्यम से जीवात्मा विषयों का ग्रहण एवं उपभोग करता है। . इन्द्रियों का प्रथम कार्य है- विषयों की ओर गति करना। उसके पश्चात् वे विषयों का ग्रहण और बोध करती/कराती हैं। अगर इन्द्रियाँ न होतीं तो सांसारिक मनुष्य का बाह्य • पदार्थों और जगत् के विषयों से कोई सम्पर्क न होता । आत्मा अकेली होती। दूसरे किसी
व्यक्ति या विषय से, पदार्थ से या जगत् की हलचल से मनुष्य का कोई वास्ता न रहता। आत्मा को बाह्य जगत् एवं जगत् के सजीव-निर्जीव पदार्थों से तथा विभिन्न विषयों से • जोड़ने वाला कोई सम्पर्क सूत्र नहीं होता । इन्द्रियों के न होने, या विकल अथवा क्षतविक्षत होने की स्थिति में मनुष्य को इन्द्रियों की महत्ता और उपयोगिता का पता जगता है।
जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश ग्रहण, पृ. ४६९
(क) वही, पृ. ४६९
(ख) श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । 'अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥
. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. ७८
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- गीता अ. १५, श्लो. ९
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